जब भी गिरमिटिया मजदूरों की बात होती है, हमारे सामने ऐसे किसी मजदूर की जो छवि उभरती है वह भोजपुरी समाज का होता है। अभी तक जो भी बहुचर्चित साहित्यिक लेखन सामने आए हैं, उनमें भोजपुरिया गिरमिटियों के बारे में ही खास तौर पर बात हुई है। लेकिन जो झारखंडी आदिवासी मजदूर बाहर गए, जिनको हिल कुली कहा गया, उनके बारे में कहाँ बात होती है? वे कहाँ और क्यों खो गए हमारी चिंता और चर्चा से? सोचने की बात तो है।
हिल कुली कोंता की कहानी पढ़िए अब 'माटी माटी अरकाटी'उपन्यास में, जिसे बहुत दिलचस्प ढंग से अश्विनी कुमार पंकज (AK Pankaj )ने गहरी छानबीन के बाद लिखा है। यह उपन्यास आदिवासी समाज के इतिहास के भूले-बिसरे संदर्भों को नए सिरे से सामने ला रहा है।
राधाकृष्ण प्रकाशन से पेपरबैक संस्करण में प्रकाशित इस किताब की कीमत 250/- रूपय हैं। फ़िलहाल इस किताब की अमेजन पर प्री-बुकिंग शुरू हो चुकी है और 10 जून से अमेजन इसे पाठकों तक पहुँचनाना शुरू कर देगा।
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माटी माटी अरकाटी
वह उस औरत को नहीं जानता था, लेकिन अब वह उसकी थी, जो दो सप्ताह पहले उसे दी गई थी और जिसके साथ वह पिछले दस दिनों से रह रहा था- बिना एक-दूसरे को जाने। बिना उसका चेहरा देखे।
और अब, जबकि उसकी आंखें मुंद रही थीं, सिर पर दूर-दूर तक पसरा नीला आसमान तेज़ी से धुंधलाता जा रहा था, उसके कानों तक पहले उस औरत की हल्की चीख आई, फिर उसका बिखरता हुआ गोल-सा चेहरा दिखा जिसकी पतली नाक के नीचे रखा हुआ एक अधखिला पलाश का फूल समुद्री हवाओं से थरथरा रहा था।
इसके बाद घुप्प अंधेरा छा गया।
उसे लगा, उसकी देह बेजान हो गई है और लहराती हुई चारों ओर फैले हुए अथाह पानी में आखिरी ठिकाना ढूंढ़ने के लिए तेज़ी से नीचे गिर रही है। जीवन के इस सबसे भयानक पल में उसे अपने पुरखे याद आए, कुछ ही दिन पहले जिन्हें वह उन जंगलों और पहाड़ों पर छोड़ आया था, जो उससे मीलों दूर थे।
उसने पुरखों को धन्यवाद कहने के लिए अपने ओठों को खोलना चाहा, पर वे महुए की तरह सूखकर बिलकुल छोटे हो गए थे और आपस में इस तरह से चिपक गए थे कि ज़ोर लगाने के बाद भी नहीं खुले। तभी उसे महसूस हुआ, उसकी गिरती हुई देह को पुरखों ने थाम लिया है।
इसके बाद उसे कुछ भी भान नहीं रहा। हवा, पानी और आसमान सब कुछ स्थिर हो गया। हर चीज ठहर गई थी। शायद सांस भी।
वह पूरी तरह से अचेत हो गया था।
डूबते हुए सूरज का लाल रंग तब पानी में फैल रहा था।
उसका नाम कोंता था और वह औरत जो कंपनी के रजिस्टर के अनुसार उसकी औरत थी और अचेत होने तक जिसकी सूरत भी ठीक से नहीं देख सका था, कुंती थी।
तीन दिन बाद, जब चांद और समंदर के पानी का रंग रात के किसी पहर में घुल-मिलकर एक हो रहे थे, कोंता को होश आया।
सबसे पहले झिलमिलाते हुए तारे दिखे। नज़रें फेरीं तो वही औरत, जिसके चेहरे पर उसने अचेत होते-होते अधखिला पलाश का फूल थरथराते देखा था, वह दिखी। परछाईं की तरह हिलती हुई।
उसने उठने की कोशिश की तो उस औरत ने उसकी छाती पर धीरे से हाथ रख दिया। कोंता ने उठने का कमजोर प्रयास छोड़ दिया। उसका शरीर बुखार से तप रहा था। जी मिचला रहा था। सांसें बेतरतीब ढंग से मीलों दौड़कर आए हुए आदमी की तरह रह-रहकर हांफ रही थीं। कोंता को महसूस हुआ, उसके शरीर में पानी की एक बूंद भी नहीं बची है। उसकी तपती हुई देह पानी की तड़प से थरथराई। सूखे ओठों पर नमी तलाशती हुई जीभ मछली की मानिंद इस छोर से उस छोर तक घूम गई।
औरत को लगा, वह पानी पीना चाहता है। उसने कांच की बोतल से अल्युमीनियम के कटोरे में थोड़ा-सा पानी डाला और उसके सिर को सहारा देकर ऊपर उठाया, ताकि वह पानी पी सके। फिर दूसरे हाथ से पानी का कटोरा उसके मुंह से लगा दिया। मुश्किल से कोंता पानी के दो-चार घूंट गले के नीचे उतार सका।
पानी पीते हुए कोंता जीवन में पहली बार किसी औरत की गोद में था। नर्म मुलायम घास की तरह थी उसकी गोद। मां की गोद जैसी। उसने गौर से औरत का चेहरा देखा। लेकिन रात के अंधेरे में बेहोश होने से पहले जैसी ही साफ-साफ नहीं, उसकी अस्पष्ट धुंधली छवि दिखी। गोल चेहरे पर पतली नाक के नीचे रखा हुआ अधखिला पलाश का फूल। उसने आंखें बंदकर गहरी सांस ली। फेफड़े में घुसती हुई नमकीन हवाओं में उस औरत की मीठी गंध घुली हुई थी।
कोंता जागा हुआ था। जब कुंती उसके पास पहुंची तो सुखराम, रुंगता, बुधु, ठेबले, और एतो आदि दस-बारह लोग उसे घेर कर बैठे थे। ठेबले और एतो ने सरककर कुंती के लिए जगह बना दी। थोड़ा सकुचाते, खुद को समेटते और घूंघट को थोड़ा ऊपर उठाते हुए वह कोंता के सामने बैठ गई। कोंता अचकचा गया। उसने अब से पहले उसका चेहरा देखा ही नहीं था। जाने कौन औरत है! चरका है। बिलकुल दिकू लोगों की तरह रंग-रूप। उसने सवालिया नज़रों से ठेबले को देखा। ठेबले समझ गया, वह कुंती को नहीं पहचान पा रहा है। चूंकि कुली डिपो में और यहां डेक पर भी औरतें घूंघट में रहती थीं इसलिए ठेबले, उसके साथी और दूसरे पुरुष लोग भी उनका चेहरा नहीं देख पाते थे। कपड़े से उन्हें पहचानना मुश्किल था, क्योंकि जहाज पर चढ़ने से पहले उन सभी को एक ही तरह के कपड़े दिये गए थे। औरतों को बिना रंग वाली धोती और एक-एक कुरती। आदमियों को धोती के साथ कुरता। साथ में ओढ़ने-बिछाने के लिए एक-एक चादर। लेकिन कल शाम जब कोंता बुखार से बेहोश होकर डेक से गिरनेवाला था और बदहवास कुंती दौड़कर उस तक पहुंचकर चीखी थी, उस समय उसका पल्लू पूरी तरह से सरक गया था। तभी ठेबले, रुंगता और डेक पर खड़े कई लोगों ने उसका चेहरा देख लिया था।
इसलिए कुंती के पास आने के बाद जब कोंता ने ‘कौन है’ के अंदाज में ठेबले की तरफ देखा तो ठेबले और रुंगता दोनों के ओठों पर शरारती मुस्कान दौड़ गई। ठेबले कोंता से कुछ कहता, इससे पहले रुंगता कुड़ुख (उरांवों की भाषा) में बोल पड़ा, ‘ईस एंग्ग नासगो तलिदस’ (यह हम सबकी भाभी है)।
कोंता नहीं समझ पाया। उरांव होते हुए भी वह अपनी भाषा कुड़ुख नहीं जानता था। चडरी और चुटिया के आसपास के उरांव लोग मुंडा समुदाय के साथ-साथ रहते अपनी भाषा भूल चुके थे। वे सब मुंडारी ही बोलते थे।
कुंती को उनकी बातचीत बिलकुल समझ नहीं आई। एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़ा। न जाने कैसी बोली-भाषा है! जरा भी समझ में नहीं आनेवाली। पर लगा कि शायद उसके बारे में ही बात हो रही है, इसलिए जब आखिरी बात सुनते ही कोंता थोड़ा लजा गया तो उसकी देह भी गनगना गई।
कुंती ने उसके माथे पर हाथ रखा। बुखार नहीं था।
कोंता अब एकटक उसी को देख रहा था। पतली देह पर गोल चेहरा। चांद की रंगत का, जिस पर पतली नाक, पतले-पतले ओठ और किसी ‘टोंगरी’ की तरह उभरी हुई भरी-भरी छातियां। वह उसके यहां की औरतों की तरह गठी-कसी नहीं थी। नदी के किनारे की नरम मुलायम मिट्टी जैसी।
शरमाई और छुपी नज़रों से जब कुंती ने लगातार कोंता को अपनी ओर देखते पाया तो छुईमुई के पौधे की तरह वह और सिकुड़ गई। जाने कौन देस का है! बिलकुल करिया तो नहीं लगता, जबकि उसके साथी लोग तो एकदमे कुच-कुच करिया हैं। इसका रंग जरा-सा साफ है। तांबे जैसा। उसके अपने देस के मर्दों की तरह ‘लुसुर-पुसुर’ नहीं। तगड़ा सुडौल जवान। नाक चौड़ी,ओठ मोटे और छाती छोटी चट्टान की तरह सख्त। बांहों की मछलियां कसी-कसी। बीमार पड़ने के बाद भी इसका देह ‘लट-पट’नहीं हुआ है। और उम्र? उम्र तो उसी के बराबर बुझा रहा है। शायद एक-दो साल बड़ा। कौन जाने छोटा ही हो! दहाज के लोग कहते हैं, ई सब जंगली लोग हैं। छोटानागपुर देस का रहनेवाला। कलकत्ता से पूरब दिसा में ऊ देस है। धनखेती नहीं है उधर। खाली जंगले-पहाड़ है का तो। जंगले का आम-कटहर और जनावर खाते हैं ई लोग। कीड़ा-फतिंगा कुछो नहीं छोड़ते हैं। हे बिधना! कोनों जोड़ नहीं है। कैसे रह सकेगी वह इस जंगली आदमी के साथ?
कुंती की नज़र समुद्र के हिचकोले पर थी। जैसे-जैसे हिचकोले उठते-गिरते, उसकी धड़कन भी कम-ज्यादा होती। वह ‘कोंता’ के सच को स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
यही हाल दूसरी औरतों का भी था। जमुनी, तिलिया, मगनी, धनवंती और रेबनी शादीशुदा थीं और अपने मर्दों के साथ सफर कर रही थीं। फुलवरिया, मुनिया, इमरती, रमिया, सुकमी, रामदुलारी और कंगना अविवाहित थीं। कुंती और जोगती, दोनों विधवा थीं। कंगना, रामदुलारी, धनवंती और कुंती सवर्ण जातियों से थीं। बाकी सब लोअर कास्ट से।
कलकत्ता कुली डिपो के रजिस्टर के अनुसार जहाज पर चढ़ने वाली सभी औरतें शादीशुदा थीं और अपने-अपने ‘हसबैंड’ के साथ स्वेच्छा से पांच साल के कांट्रेक्ट पर मजदूरी करने मॉरिशस जा रही थीं। लेकिन सच्चाई यही थी कि पांच विवाहितों को छोड़कर बाकियों से बिना उनकी इच्छा जाने, उनसे पूछे, और जाति-धर्म को ताक पर रखकर उन्हें अनजान पुरुषों के हवाले कर दिया गया था।
कलकत्ता डिपो में मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर करने से दो दिन पहले जब आठों को आठ मर्दों के सामने खड़ा किया गया था,कुंती भी अन्य अविवाहित औरतों की तरह कुछ नहीं समझ पाई थी कि क्या हो रहा है और क्या होनेवाला है। बंदूकधारी‘बरकंदाज’ के साथ दफादार जब भी आता, औरतें डर जाती थीं। पता नहीं किसलिए आए हैं और उनके साथ क्या करेंगे! घूंघट में रहने के कारण बहुधा वे बस अंधों की तरह अपनी परिस्थिति और परिवेश से अनजान होतीं। जो कहा जाता, उसे चुपचाप मानने के लिए मजबूर।
कुछ पल खड़ा रहते हो गए तो फुलवरिया ने ही दफादार से घिघियाते हुए पूछा था, ‘ए भइया, हमनी के काहे ल ई अदमियन के सामने ठाड़ा करले हऽ?’
वह दफादार छपरा भोजपुर का था। औरतों के डिपो की ज़िम्मेदारी उसी पर थी। कुछ भी कहना-सुनना उसी से होता था। बोला, ‘अभी बियाह होगा तोहिन के।’
सुनते ही औरतें भक्क हो गईं। वे सब घूंघट में थीं और अपने सामने खड़े पुरुषों को ठीक तरह से देख भी नहीं पा रही थीं कि कौन कैसा है। जवान है कि बूढ़ा है। लगीं सब रोने-धोने। सामने खड़े पुरुष भी दफादार की बात सुनकर ‘घबड़ा’ गए थे। वे भी आपस में खुसर-फुसर करने लगे।
कुंती को तो जैसे काठ मार गया। बियाह क्यों? कौन होते हैं ये लोग उसका बियाह कराने वाले? और कोई कैसे बिना गांव-जवार,जाति-धरम जाने...उसे अपनी स्थिति किसी बेस्वा की तरह लगने लगी, जिसे वेश्यावृत्ति के लिए ज़बरदस्ती कोठे में ला खड़ा किया गया हो!
औरतों का रोना-धोना जब बढ़ने लगा तो दफादार खूंखार ढंग से चीखा, ‘चोप्प! बंद करो नकियाना। नाहीं तो सबके गंगाजी में डुबा के मार देंगे।’
22 साल की मुनिया दफादार के सामने आकर खड़ी हो गई। ‘केकरा जीयेला हइ? हमनी अदमी ना हियइ का? कइसे कर लेम कोनों आन अदमी से बियाह? हम डूबे ल तेयार ही। हिमत हवऽ त ले चलऽ!’
उसकी इस दिलेरी पर दफादार मुस्कुराया। मूंछांे को ऐंठते हुए कड़का, ‘ले जाइब। एतना जल्दी का बा। पहिले बढ़िया से तोहरा के चार अदमी घोटिहें-पिसीहें। फिन नु डुबाब हो।’
दफादार की धमकी असरदार थी। गुस्से से उबलती गरियाती हुई मुनिया अपनी जगह पर जाकर खड़ी हो गई।
पुरुष लोग चुपचाप थे। वे भी इस तरह की शादी के लिए तैयार नहीं थे। पर बेबस थे। कैद में थे और यहां उनकी ना का कोई मतलब नहीं था।
न औरतों को समझ में आया और न पुरुषों को कि बियाह कैसे हो गया। मंतर भी नहीं पढ़ा गया, न ही गांठ बांध के फेरा-उरा हुआ। ‘फस्ट विद फोरथ’...ई कैसा सादी हुआ? यह भी नहीं मालूम चला, कौन किसका जनाना और कौन किसका मरदाना है?’
दफादार को उन सबकी हालत देख मजा आ रहा था। वह जानता था, उनके मन में कैसे-कैसे सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। आंख नचा-नचा के और सिर घुमा-घुमा के मर्दों की तरफ देखते हुए कहने लगा, ‘यही न सोच रहे हो कि सब तो घूंघट में हैं। कौन किसका मेहरारू कैसे चिन्हबऽ? मरीच देस में घुंघटवा उघार के हाथ पकड़ा देंगे साहब लोग। बाकी दहाज पर तुम लोग का मरजी। साहब का भासा तो बूझे नहीं। इसलिए हमहीं बता दे रहे हैं। याद कर लो बढ़िया से।’
उसने नाम गिनाना शुरू किया, ‘फुलवरिया का मरद चैता, मुनिया का दीना, इमरती का ऊ जे लाइन में तीसरका लंबर पर खड़ा हय मतलु। बेचन का मेहरारू हुई सुकमी। रामदुलारी का बियाह अलगु से अउर कंगना रहेगी गजाधर के संग। जोगती का अदमी हय नानू अउर कुंती घर बसाएगी कोंता के संग। बाकी बच गइली रमिया। तऽ ऊ हमार संगे एहिजे रही।’ फिर ज़ोर से ठहाका मारकर बोला, ‘ना...हम त मजाक कइनी हऽ। रमिया के बियाह भइल बा लोटुआ के संग।’
औरतों की पहचान करने के लिए दफादार जिसका नाम लेता, उसकी ओर लाठी से इशारा कर देता। जब उसने कुंती का नाम लिया तो कोंता ने गौर से कुंती को देखा। सिर से पांव तक ढकी कुंती के पैर में बिछिया थी। उसने उसी बिछिया को अपनी आंखों में सहेज लिया।
कुंती का दिलोदिमाग तो सुन्न था। कोंता सुनने पर भी उसके मन में कोई हलचल नहीं हुई न कोई उत्सुकता कि कोंता कौन है।
कोंता की बीमारी के दौरान कुंती ने देखभाल की थी, इसलिए यह मान लिया गया था कि उसने कंपनी सरकार द्वारा जोड़े गए रिश्ते को स्वीकार कर लिया है। पर कुंती जानती थी, यह सच नहीं है। उसके संस्कार कोंता के बिलकुल खिलाफ थे। बीमारी में कोंता की सेवा उसका मानवीय धर्म था। पति मानकर उसने उसकी सेवा नहीं की थी।
इसी उधेड़बुन में वह डेक तक चली आई थी और स्वयं को हिचकोले खाते जहाज की तरह महसूस कर रही थी। नीच से भी अधम जंगली आदमी को पति के रूप में ही सोचकर उसका दिल बैठता चला जाता।
कोंता और कुंती दोनों के समाज बिलकुल अलग थे। धर्म, भाषा संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान- सब कुछ में। पर परिस्थितियों ने दोनों को एक साथ ला खड़ा किया था। यह एक ऐसा सच था जिसकी कल्पना कोंता और कुंती ने कभी नहीं की थी। कुंती के सामाजिक संस्कार कोंता से ज्यादा जड़ थे। वह जिस घर-संस्कृति में पली-बढ़ी थी, वहां कोंता जैसे आदमियों को इंसान नहीं समझा जाता था। कुल के मान-मर्यादा की बेड़ियों में वह जकड़ी हुई थी। उन बेड़ियों से निकल पाना जहां आसान न हो, भला वह उसे अपना मरद कैसे मान लेती?
कोंता से नहीं रहा गया। वह धीरे-धीरे कुंती की ओर बढ़ा। कुंती ने उसे आते हुए नहीं देखा, पर लगा, कोई ठंडी लहर उसकी ओर बढ़ रही है।
पास पहुंचकर कोंता चुपचाप खड़ा हो गया। कंुती को उसकी जानी-पहचानी सांस सुनाई दी। इन सांसों के बहुत करीब वह तीन रात और चार दिन तक रही थी। कोंता की बीमारी के समय। इन सांसों को तो वह दो सौ से ज्यादा आदमियों के भीड़ में भी पहचानने लगी थी। लेकिन उसका मन उसके नजदीक रहने को तैयार नहीं था। उसकी देह पलटी और अपने समूह की ओर बढ़ गई।
कोंता को खुद पर ग्लानि हुई। जब वह नहीं चाहती तो क्यों उसके बारे में सोचता है? उसे उसकी इच्छा का सम्मान करना ही चाहिए। कागज में लिखा सब कुछ सही नहीं होता। कागजी चीजें हमेशा झूठी होती हैं और तकलीफ ही देती हैं। उसका परिवार और गांव-देस कागज के राज से ही तो बरबाद हुआ। पुरखा समय में न कोई कागज था, न पट्टा। जब से ओलन्किसन साहब किसुनपुर में आकर रहने लगा था, कागज ने उनके जैसे आदिवासियों की सारी खुशी छीन ली थी।
उस अनजान मरीच देस में यह उन सबकी पहली सुबह थी। लोग तड़के ही दिसा-मैदान से निवृत्त होकर बाहर खुली हवा में सांस लेने को बेचैन थे। नाश्ते में शक्कर मिला पानी और भरपेट पुड़ी-दाल कई सप्ताह के बाद मिला था। सबने जमकर खाया।‘जम कर’ मतलब जहाज की तुलना में दोगुना मिला था। इसके बाद इमाइग्रेंट अफसर एंडरसन जो नए कानून के अनुसार अब उनका ‘रक्षक’ (प्रोटेक्टर) था, उसके सामने उनकी पेशी हुई।
एंडरसन एक-एक की गिनती करता। उनका नाम पूछता। रजिस्टर से उसका मिलान करता, फिर पूछता, ‘ज़बरदस्ती तो नहीं लाए गए? अपनी मर्ज़ी से आए हो? जहाज पर कोई तकलीफ तो नहीं हुई? डरो मत। बोलो, किसी ने कोई बदसलूकी तो नहीं की?’
वे सिवाय अपनी मुंडी हिलाने के क्या कर सकते थे! रात में ही सरदार ने आकर चाबुक फटकार दिया था। किसी ने ना की तो जेहल में सड़ा देंगे। और शिकायत करने पर जेहल में नहीं, नरेटा टीप के समुंदर में फेंक देंगे।
पेशी खत्म हुई। ‘रक्षक’ साहब संतुष्ट होकर चले गए।
कलकत्ता से ही उन्हें यह सीख मिल चुकी थी कि जैसे ही उनका नाम लिया जाए, वे लाइन में लग जाएं। जब वे एक कतार में खड़ी हो गईं तो चपरासी ने कहा, ‘अभी एक-एक कर सबको हेड क्लर्क के पास चलना है।’
औरतें सहम गईं। एक-एक करके क्यों? साथ में क्यों नहीं?
इमरती बोल उठी, ‘ए भइया, हमीन एक-एक करके न जायम। सब एके संग जाएम।’
चपरासी ने डपट दिया। ‘अकेले ही चलना होगा। यही नियम-कानून है यहां।’
कमरे में घुसते ही उसने देखा, पहले से पहुंची पांचों औरतें एक तरफ और उनके डिपो मर्द एक तरफ चुपचाप खड़े थे। उन सबके घूंघट हटे हुए थे। उसे भी घूंघट हटाकर खड़ा होने का आदेश मिला। कुंती ने देखा, कोंता मर्दों की कतार में शामिल था।
क्लर्क ने उसका नाम पूछा। पता पूछा। तब तक बाकी बची दोनों औरतों के डिपो मर्द एक-एक के बाद एक वहां आ गए। उनसे भी उनका नाम-पता पूछकर कतार में खड़ा कर दिया गया। इसके कुछ ही पल बाद मुनिया और इमरती भी कमरे में मौजूद थीं।
क्लर्क ने उन सभी को संबोधित करते हुए बोला, ‘तुम सबकी शादी कलकत्ता डिपो में हुई थी, लेकिन मॉरिशस सरकार उसको नहीं मानती। अगर तुम लोग उस शादी को स्वीकार करते हो, तब ठीक है, नहीं तो वहां की शादी नकार सकते हो। इसीलिए तुम लोग का आईडेंटिटी कार्ड नहीं बना। क्योंकि अगर तुम लोग उस शादी को मानोगे तो दोनों के कार्ड में एक-दूसरे का नाम पति-पत्नी के रूप में लिखा जाना जरूरी है। मर्द हो या औरत, जिसको-जिसको शादी कबूल नहीं है, वह कतार से बाहर आ जाए। जिसको कबूल है, वह जोड़े से हो जाए।’
कुंती की धकधक बढ़ गई। ‘हे दैब! अब का उपाय करबइ?’
दूसरी औरतें भी पेसोपेश में थीं। रामदुलारी, जिसकी उम्र सबसे ज्यादा थी, उसका आदमी उससे कम-से-कम पांच-छह साल छोटा था। वहीं, बीस साल की इमरती के डिपो मरद की उम्र दोगुनी दिख रही थी। जहाज में उन सबने ‘डिपो मरद’ पर ध्यान दिया नहीं था। कलकत्ता में मर्जी पूछी नहीं गई। यहां मर्जी पूछ रहे हैं। क्या जवाब दें? सबके पांव धरती में जम गए थे।
तभी फुलवरिया सबसे अलग खड़ी हो गई। क्लर्क ने देखा और मुस्कुराया। इस औरत में अपने ‘फ्रीडम’ की चाह है। तभी उसने मर्द का साथ लेने से नकार दिया। उसने बाकी औरतों पर नज़र डाली।
कुंती के दिमाग में कलकत्ता डिपो से मॉरिशस पहुंचने तक की स्मृतियां डोल रही थीं। कहीं भी तो किसी ने उसे इंसान नहीं समझा था। हर कोई देहिया बकोट लेना चाहता था। बचाने वाला कोई नहीं था।
किताब का नाम – माटी माटी अरकाटी
लेखक – अश्विनी कुमार पंकज
प्रकाशन – राधाकृष्ण
बाउंड – पेपेरबैक
कीमत – 250/-
आईएसबीएन - 978-81-8361-802-1