सैयद एस. तौहीदने ज़फर पनाही की फिल्म वाइट बैलूनपर लिखा है- मॉडरेटर
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ईरान में फिल्मों का निर्माण एक बेहद साहसी काम हुआ करता है. ईरानी फ़िल्मकारों को ऊपर आए दिन मुसीबतों का इम्तिहान गुजरता रहा है. प्रोग्रेसिव मोहम्मद खतामी के समयकाल में सिनेसाधकों को थोड़ी राहत रही,लेकिन ज़फर पनाही एवम माजिद माजिदी जैसे फिल्मकार अपने सपनों को जिंदा रखने के लिए बड़े इम्तिहान से गुजरे हैं. फिल्मों के जुनून में वतन से दरबदर किए गए. सरकार एवं सेंसर द्वारा लगाए फतवों व पाबंदियों का सामना करते हुए इन्हें फिल्में बनानी थी. इस अकेलेपन का बड़ी हिम्मत से सामना करते हुए फिल्मकारों ने कल के मुस्तकबिल- बच्चों पर फिल्में बनाने का रास्ता चुना.इस सिलसिले में ज़फर पनाही की सफेद गुब्बारा (वाइट बलून )आईना (द मिरर )तथा माजिद माजीदी की स्वर्ग के बच्चे (चिल्ड्रेन ऑफ हेवन ) एवम अब्बास कीरोस्तमी की (दोस्त का घर ) की याद आती है. ज़फर पनाही की 'सफेद गुब्बारा' ( वाइट बलून/White balloon)का ही ज़ायजा लें..रोज़मर्रा की सामान्य उबाऊ बातों में रूचिकर चीजों को तलाशने का हुनर यहां दिखाई देगा.सामान्य सी नज़र आने वाली घटना,जिस पर कम ही नज़र जाया करती,उसमें से मार्मिक कहानियां खोज निकालना पनाही की ताक़त है.
पनाही की 'वाइट बलून 'की खासियत रोज़मर्रा की नीरस सी गतिविधियों में मन को छू जाने वाली कहानी थी. फिल्म ने बताया कि वयस्कों के नज़रिए में रोज़मर्रा की बातें बहुत साधारण मालूम पड़ती हैं, लेकिन बच्चों की नज़र में इन उबाऊ बातों में भी बहुत कुछ रूचिकर होता है. बच्चों की मासूम आंखे रोज़ाना की चीजों में जबरदस्त नाटकीयता देख लेती हैं.नीरसता में उत्साह खोज लेने का शौक बच्चों में होता है.कहानी ईरानी नए साल 'नवरोज़'के एक रोज़ पहले का किस्सा कह रही. किसी भी ख़ास दिन के लिए उत्साह व जुस्तुजु उसके बस एकदम पहले सबसे.ज़्यादा शबाब पे होती है. ईरानी केलंडर युरोपियन कलेंडर से थोड़ा ज़्यादा सटीक वक्त होता है. इसके मुताबिक नया साल नवरोज़ के दिन किसी भी बेला आ सकता है.
कहानी सात साला बच्ची रजिया के इर्द-गिर्द घूम रही.त्योहार की खुशी में रजिया ने अम्मी से रंगीन सुनहरी मछली खरीदने की जिद कर रखी है. ईरानी नवरोज़ बसंत ऋतु के पहले दिन पड़ता है. ईरान में इन दिनों छुट्टियों का सीजन हुआ करता है.सिर्फ़ नवरोज़ सीजन की छुट्टियां तक़रीबन दो हफ्ते तक जारी रहती है. इसकी तुलना यूरोपीय देशों में क्रिसमस की जानी चाहिए क्योंकि यह भी तोहफ़े देने के ख़ास दिन लेकर आता है. ईरानी तहज़ीब में नवरोज़ को कुदरत के पुनर्जन्म का उत्सव भी माना जाता है. नवरोज़ का किस्सागो पहलू 'हाजी फिरोज'का रूचिकर पौराणिक किरदार है. इन किस्सों में हाजी फिरोज का चटकदार नायक रंगबिरंगे अंदाज़ का बताया गया है.काले रंग में मुखडा रंगा हुआ रंगबिरंगे कपडो में रहता था.नवरोज़ सीजन आते ही लोग हाजी फिरोज की शक्ल में नज़र आया करते हैं.
इस रंगबिरंगे किरदार को फ़िर से जीने के अंदाज़ में लोग बाजे-गाजे के साथ सड़कों पर निकल पड़ते हैं.नाच-गाना करते हुए खूब आनंद से इन दिनों को जीते हैं. रिवायत के मुताबिक 'नवरोज़'की अहमियत ख़ास तरह के सात पकवानों से जुड़ी है. इन सात पकवानों को एक बेहद 'ख़ास टेबल'पर गोल दायरे में सजा कर रखा जाता है. इस ख़ास व पाक टेबल पर एक प्याले अथवा बाउल में सुनहरी दिलकश मछली लाकर रखने की रस्म है . ईरानी रिवायत में इन सात पकवानों के नाम फारसी जुबान के 'शीन'लफ्ज से शुरु होने चाहिए. इन मान्यताओ में शीन लफ्ज आने वाले नए साल में खुशनसीबी का सूचक माना गया है. ईरानी लोगों की जिंदगी में फारसी का शीन लफ्ज नयी उमंगों व जिंदगी का दूसरा नाम है. नवरोज़ में खासकर इसकी अहमियत बहुत ज्यादा है. परम्परागत त्योहार व उमंगों की भावना में सात साला रजिया अपने घरवालों से सुनहरी मछली मंगवाने की जिद करती है. वो उस ख़ास टेबल पर दिलकश सुनहरी मछली देखने का मासूम ख्वाब पाले हुई थी .
वाइट बलून में दर्शकों को यह बताया गया कि नया साल बस अगले ही चंद घंटों बाद दस्तक देने वाला है..कहानी के विकास साथ हम भी उस इंतजार में शामिल हो जाएंगे क्योंकि पनाही ने कथा को बहुत सटीक रफ़्तार दी. आपने कथा को वास्तविक समयकाल में रखा. फिल्म के पहले ही शॉट में 'हाजी फिरोज' का रुप लिए मसखरे सड़कों पर नज़र आते हैं. इसी दरम्यान दर्शकों को बाहरी रेडियो के ज़रिए यह बताया गया कि नवरोज़ का खुशनुमा त्योहार महज़ सत्तर मिनट के पार दूसरे छोर पे हमसे मिलेगा.कहानी के आखिर में भी वही रेडियो नए साल के शुरु होने की ख़बर देता है. पनाही ने इस बाहरी रेडियो के इस्तेमाल से घटनाओं में मौजूदा समयकाल का अनोखा अनुभव गढा. सरसरी निगाह में कथा बहुत लघु नज़र आएगी लेकिन बारीकी से देखें तो समझ आएगा कि हम गलत सोच रहे थे.
सुनहरी मछली की जिद में रजिया अम्मी के पल्लू में लिपटी थी, नवरोज़ के लिए गोलमटोल सुनहरी मछली खरीदने के लिए उनके सिर पे खड़ी हुई थी.इस सीन में रजिया के घर का खाका कायम हुआ,जिसमें यह ब्यौरा था कि यह घर नज़दीकी बाज़ार से सटे अहाते में पड़ता था.रजिया अपनी मां-बाप की इकलौती औलाद नहीं थी,घर में उसका बड़ा भाई ग्यारह साला किशोर अली भी था. पिता बहुत ज़्यादा रौब जमाने वाले शख्स थे,लेकिन पूरे फिल्म में इनकी सिर्फ़ आवाज़ थी.दिखाया नहीं गया.छुट्टियों की तैयारियों में अम्मी इतनी मशगूल थी कि घर में नई सुनहरी मछली लाने के बारे में सोच भी नहीं रही. घर के तालाब में सुनहरी मछलियां रहते हुए फ़िर से नई मछली खरीदना बेकार था उसकी नज़रों में.लेकिन छोटी रजिया के एतबार से वही काम ज़रूरी था. रजिया उसी गोलमटोल सुनहरी मछली के लिए जिद पे अडी थी.. रिरियाने लगी. जो उसने बाज़ार में कहीं देखी थी. बहुत जिद व शिकायत के बाद आखिर रजिया को खुशी का वो पल मिला.उसके हांथ में500ईरानी तोमान(ईरानी मुद्रा का यूनिट ) का नोट था.इसमें से वो अलबेली सुनहरी मछली को बाज़ार से ला सकती थी.
रुपए लेकर रजिया बाज़ार में इधर उधर फ़िर रही थी,इस दरम्यान उसकी नज़र सपेरे के खेल पर पड़ी.इस मनपसंद खेल -तमाशे को देखने से खुद को रोक नही पाई.दो सपेरों ने अपने खेल से भीड़ को जमा कर लिया था, रजिया भी उस तरफ़ हो ली.तमाशबीनों का फ़ायदा उठाकर सपेरे ने बच्ची के हांथ से 500तोमान लपक लिया,कुछ इस तरह मानो वो खेल का हिस्सा हो. रजिया के उन आंखों से अभी कुछ और आंसू छलकने थे, हांथ से रूपया छीन जाने पर खूब रोई, हंगामा किया.थक हार के तमाशेवाले को उसका रूपया वापस देना पड़ा. बच्चों की सुरक्षा के नज़रिए से यह सीन मायने रखता है. घर की चहारदीवारी के बाहर बच्चे कितना पराया एवं ख़तरे के दायरे में खुद को महसूस करते होंगे..इसका अंदाजा लगता है.
अपना रूपया मिलते ही रजिया वहां से कटने लगी.वो अब मछली खरीदने के लिए आगे बढ़ी,धीरे धीरे सुनहरी मछली की उस दूकान पर पहुंचती है.लेकिन मुसीबतें उसका पीछा नहीं छोड़ रहीं थी.नयी मुसीबत -उसका नोट ही अभी अभी रास्ते में कहीं गिर पडा ! इस घड़ी में एक नेकदिल औरत रजिया की मदद के लिए आई. खोए हुए रुपए का पता तो चल गया,लेकिन रजिया का दिल बहल नही रहा था क्योंकि नोट एक बंद दूकान के सामने की नाली में झंझरी से सरक गया था. इत्तेफ़ाक से उस बंद दूकान के बगल में दर्जी की दूकान खुली थी.रजिया के लिए नेकदिल औरत ने दर्जी से बात कर जुबान मांग ली कि उस मासूम लड़की की मदद ज़रूर करेगा. लेकन इधर -उधर की बहस में इतना मशगूल हो गया कि छोटी सी लडकी से किए अपने वायदे को भूल गया.
रजिया का ग्यारह साला बड़ा भाई अली उसकी हिफाज़त में आगे आया.वो बहुत देर से रजिया की तलाश कर रहा था कि सात साल की बच्ची आखिर गयी कहां ? वो उसे सड़क पर आखिर में तलाश कर सका. अली ने दर्जी से मदद मांगी,लेकिन उसने दोनों बच्चों से नवरोज़ ख़त्म होने तक इंतजार करने को कहा.क्योंकि तब तक बंद दूकान का मालिक वापिस आ जाएगा.लेकिन यह इंतज़ार व शब्र बड़े उम्र के लोगों को समझाने के लिए ठीक था..लेकिन रजिया व अली अभी बहुत छोटे थे.क्योंकि बिना रुपए के घर वापस जाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. मां -बाप की सवालिया नज़रों का सामना करना कभी नहीं गंवारा करते.इस बेचैनी में अली भागता -भागता उस दूकानदार का पता -ठिकाना पता करने की कोशिश करने लगा..इक बार फ़िर से रजिया अकेली थी. इस बार एक सैनिक उससे बातचीत करने के लिए आगे बढ़ा. एक बार फ़िर वो दहशत के दायरे में थी.
अजनबी लोगों से दूर रहने की तालीम बच्चों को शुरू से दी जाती है.इसलिए वो कोई पहल लेने से परहेज कर रही थी.अभी वो सैनिक कोशिश में कामयाब ही हुआ था कि अली हिफाज़त के लिए वहां आ गया. नाली के बहाव में अटके हुए रुपए को अभी भी नहीं निकाला जा सका था. दोनों बच्चे एक अफगानी लड़के हरकतों पर नज़र रखने लगे.यह अफगानी बच्चा सड़क के एक बिंदु पास गुब्बारे बेचा करता था.गुब्बारों के लिए उसके पास एक खम्बानुमा लकड़ी का स्टैण्ड था.इसे पाने की जुगत में अली व रजिया लग गए. उपाय यह लगा कि इस पर चिविंग गम चिपका कर अटका हुआ रुपया निकाला जा सकता है. थोड़े देर के लिए अली के दिल में लालच आया कि क्यों उस नाबीना दूकान दार के यहां से चुरा कर ले आएं.लेकिन उसका दिमाग पलट गया,इस बीच वो अफगानी लड़का चिपकाने वाला पदार्थ ले आया.जल्द ही नाली के बहाव में अटके रुपए को तीनों ने मिलकर आखिर निकाल लिया.खोए हुए रुपए को वापस पाने का मकसद पूरा हुआ. रुपया फ़िर से हांथ में आने बाद रजिया अपने भाई के साथ सुनहरी मछली खरीदने चल पड़ी. फिल्म के अंतिम शॉट मे अफ़गानी बच्चा बेशकीमत 'सफेद गुब्बारे'के साथ था.जो नहीं खरीद सका था कोई..यह सफेद गुब्बारा खुद मे कई मायने समेटे हुए हमारे समक्ष है.. बच्चों का बेशकीमत बचपन जिसमें एक था.
वाइट बलून की जादूगरी बच्चों की छोटी सी अनोखी दुनिया है. एक बेशकीमत दुनिया जिसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए. फिल्मकार ने जहान को बच्चों के नजरिए से उसी नाटकीय अंदाज़ में रखा जिस तरह वो बच्चों के लिए हुआ करता है. कैमरा फ़्रेम एवं पोइंट आॅफ व्यू बच्चों को नज़रिए से कहानी को बुनता -गढ़ता चला है. ज़फर पनाही ने एक रोज़मर्रा के स्तर की कहानी को बड़े ही दिलचस्प नज़रिए से पेश कर ख़ास बना दिया. रोजाना के दिनों से इंसानियत के बेशकीमत पल उसकी उम्मीदें तलाश लेना पनाही की खासियत है. लेकिन बच्चों की यह छोटी दुनिया उस कदर सिमटी हुई नहीं होती, जितना हम बड़े उसे समझते हैं...इसकी परतों को व्यक्त करने में 'वाइट बलून' बेमिसाल सी मालूम पड़ती है.
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