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मिथिलेश कुमार राय की कविताएं

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मिथिलेश कुमार राय की कविताओं में में दुःख की ऐसी आवाज है जिसका साधारणीकरण अपने साथ होने लगता है. नाउम्मीद समय में उम्मीद की तरह उनकी कविताओं का अस्वाद लीजिये- मॉडरेटर 
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बड़े लोग
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बड़े लोगों को देखने का मौका
कभी-कभी ही मिल पाता था
कक्का समझते थे
कि बड़े लोग बहुत कम बोलते हैं
वे इतना अच्छा बोलते हैं
कि उनकी हरेक बातों को
सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जा सकता है

बड़े लोगों के चेहरे की चमक
और दाँतों की सफेदी
उन्हें सबसे ज्यादा आकर्षित करती थी

बड़े लोग गीत गाते होंगे
या दारू पीते होंगे
गाली देते होंगे
चीखते-चिल्लाते होंगे
या कभी पत्नी को मारते होंगे
ऐसी बातें सोचना तो
कल्पना से भी परे था

बड़े लोग कदापि ऐसा नहीं करते होंगे
उनके चेहरे पर पसरी देवताओं की कोमलता
उन्हें ऐसा करने से बचा लेता होगा
बड़े लोग झूठ भी नहीं बोलते होंगे
बड़े हैं सो उनके बारे में यह सोचना कि
वे बेईमान होंगे
कितना बड़ा पाप है
उन्हें भला ऐसा करने की क्या जरूरत

बड़े लोग काम में इतना मगन रहते होंगे
कि उन्हें छोटा सोचने का मौका
कहाँ मिलता होगा
वे जगते ही
दुनिया को बचाने में लग जाते होंगे
और दुनिया को बचाने के बाद ही सोते होंगे

बड़े लोगों के बारे में फैलाई गई सारी अफवाहें
कक्का कहते थे
कि सब छोटे लोगों की कारस्तानी है

चिड़िया सबसे पहले नहीं जगतीं
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पिता सूरज से पहले जगते थे
लेकिन तब तक चिड़िया जग जाती थीं
परिवार में सबसे पहले जगने वाले
पिता ही होते थे
माँ की नींद
पिता की चप्पल की पट-पट से खुलती थी
पिता जब खेतों की ओर निकल जाते थे
तब जाकर माँ हमें जगाती थीं
तिस पर भी हम बहुत कुनमुनाते थे
कि अभी ठीक से भोर तो होने देतीं

जब खेतों में कटाई का मौसम शुरू हो जाता
पिता आधी रात को ही जग पड़ते
उस समय न तो चिड़िया चहचहा रही होतीं
और न ही पूरब में किसी तरह की लाली ही नजर आती थी
उस समय चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा पसरा होता
उसी अंधेरे में पिता
लाठी लेकर निकल आते
और जब लौटते
उनके साथ हंसिया थामे
फसल काटनेवाले लोग होते

पिता ने किसी दिन बताया था
कि चिड़िया सबसे पहले नहीं जगतीं
सूरज भी नहीं
सबसे पहले नींद उनकी आँखों से उतरती हैं
जिन्हें काम पर निकलना होता है

किसी की डायरी में कर्ज का ब्यौरा
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पंद्रह सौ बुढ़िया दादी को देना है
बड़े बखत पर उसने दिया था
पचीस सौ चाची को
उनसे ज्यादा मांगा था
लेकिन जानता ही हूँ कि चाचा की पूरी कमाई
इलाज के ही भेंट चढ़ जाता है
कहने पर आज दो हजार फिर दिया
जबकी काकी का छह हजार पहले से है
उन्हें आठ हजार लौटाना है

मंझले काका ने जो दिया था चार हजार
उसे अब चार साल से अधिक हो गए
दो हजार तब लिया था
जब किसी ने भी नहीं दिया था
भैया ने कब कितना दिया
तरतीब से कभी लिखा नहीं
जब जितना मांगा मिला
उन्हें कम से कम सात हजार तो लौटाना ही पड़ेगा

चार साल पहले आठ हजार लिया था
और बाद में मामा ने पाँच हजार फिर दिया था
ब्याज पर सिर्फ दस हजार है महाजन का
तीन हजार उनका
और एक हजार इनका दो महीने के अंदर लौटाना है

मंझले ससुर ने
जब जिंदगी की गाड़ी फंस गई थी
एक बार चार हजार और दूसरी बार
दो हजार से धक्का मारा था
कहने पर प्रशांत ने पाँच
और राहुल ने दो हजार भेज दिया था
भैया खुद फंसे थे इसलिए
शर्माते हुए दो हजार दे गए थे
लेकिन वे अच्छे आदमी हैं
उनकी बातों से जीने का हौसला मिलता है
दोस्त ने दो हजार एक बार
और पाँच हजार एक बार दिया था
मंझले काका चाहते तो कुछ अधिक दे सकते थे
लेकिन सिर्फ तीन हजार ही दिया
ससुर जी का मैंने पाँच लौटा दिया है
अब सिर्फ दो लौटाना बाकी है

तीन सौ जो छोटे भाई से लिया था
और पचास रुपए बहन से
कितने दिन हो गए
वे टोकते तो मैं जरूर किसी से लेकर दे देता
अब जब भी गांठ में पैसे आएंगे
सबसे पहले इन्हें ही दूंगा
इन्होंने मुझे बेइज्जत होने से बचाया था

यह मौसम पतझड़ का मौसम है
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किसी ने कहा
कि यह मौसम पतझड़ का मौसम है
मैंने इसे एक खुशखबरी की तरह सुना
किसी ने कुछ कहा कि नहीं
मैं नहीं जानता
मगर मैंने सुना
कि बाद में वृक्ष पहले से अधिक हरे हो जाएंगे
वह फूलों से लद जाएंगे
चिड़ियों की आश बढ़ जाएंगी
और वे देर तलक गीत गाएंगी

बस कुछ दिनों की बात है
मौसम इतना खुशगवार हो जाएगा
कि चेहरे भी फूल की तरह खिल उठेंगे
मैंने यही सुना
कि वह मौसम एक उम्मीद की तरह आएगा

रात है तो
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एक आस है
कि टूटेंगी
उदासी की सारी लकीरें
चेहरा
मुसकुराएगा

रात है तो
विश्वास है
कि चिंता की रेखाएं
सो जाएंगी
और माथा
सिलवटों से
मुक्त हो जाएगा

रात ही
बेसुरे गीतों से
बचाने का
लबादा ओढ़ा देती हैं
जो जिंदगी गाती रहती है
हमेशा-हमेशा

दिन तो जद्दोजेहद का नाम है

मिरचई
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पता है कि फूलों से इत्र बनाया जाता है
कभी कोई बन-ठनकर बिलकुल सटकर गुजरता है तो
मन करता है कि
ठिठक कर खूब सारी हवा भर लूं फेफड़े में
लेकिन फूल पसंद है
नहीं जानता

आँगन में
जगह-जगह मिरचई के पौधे रोपे हुए हैं
इसकी हरियल तीखी गंध
मुझे मदहोश कर देती है
पोटली में रखी रोटियां
जब अपनी गरमा-गरम गंध तोड़ देती हैं
भूनी मिरचई के सहारे
मैं तब भी दुलक कर चलता हूँ

रोटियाँ ऐंठ जाती हैं दोपहर तक
तब भी
मिरचई उन्हें एक दिव्य स्वाद में ढाल देती हैं
कुदाल उतनी ही तेजी से
जमीन को पुचकारती हैं
दोपहर बाद भी
मिरचई का स्वाद
जीभ में घुला रहता है शाम घिर जाने तक

मिरचई के पौधे में
जब फूल खिलते हैं घूंघरू की तरह
मन आस में हरा-हरा हो जाता है

ताउम्र मरना शेष रहेगा
---

(इधर किसी न किसी की आत्महत्या की खबर घूमती ही रहती है)

मरना
इतना आसान होता
तो ज्यादातर लोग
कब के मर गए होते

मैं भी कई-कई बार मर चुका होता

सबसे पहले मैं तब मरता
जब तपेदिक ने मुझे घेर लिया था
और साथ के लोग भाग खड़े हुए थे
एक बार डॉक्टर की दुत्कार पर भी मरता
कि यह रोग राजाओं का रोग है
फोकट के इलाज में आदमी
इस रोग में अपने आप मर जाता है

दूसरी बार मैं तब मरता
जब मैंने प्यार किया था
फिर कई बार तब मरता
जब मुझे सब त्यागना पड़ा था
मैं एक बार उस दिन भी मरता
जब मैं भाग खड़ा हुआ था
एक बार तब भी
जब किसी की याद आ रही थी

तब भी मर जाने की इच्छा होती थी
जब सब कहते थे
कि सब ठीक हो जाएगा
और कुछ भी ठीक नहीं होता था

जब भी किसी से कुछ मांगना पड़ा
मर जाने की इच्छा हुई
समय पर नहीं लौटा पाया
तब भी
एक बार तो मैं मरने चला भी गया था
जब पेट में अन्न का एक दाना तक नहीं था
और किसी ने कह दिया था
कि यह दुनिया कितनी सुंदर है

अंग्रेजी नहीं आती थी
नौकरी नहीं मिली
मैंने कम्प्यूटर का नाम भर सुना था
पूछा कि चलाना आता है,
नहीं आता था
नौकरी नहीं मिली
हताशा में रेल की पटरी याद आने लगी

मैं देहात से शहर पहुंचा था
भोलापन मेरे अंदर था
हम जहाँ पहुंचते साथ पहुंचते
एक दोस्त ने कहा
कि लौट जाओ
शहर तुम्हारे लायक नहीं

तब भी इच्छा हुई
नदी में लौट जाऊं
मछली का आहार बनूं

अच्छे दिन चेहरा दिखाकर चलते बने
बुरे दिन चौबीसों घंटे साथ रहा
साथ सोया
साथ चला

बुरे दिनों में
जब भी किसी से कहना पड़ा-
बुरा दिन
तब भी मर जाने की इच्छा हुई

यही परंपरा थी सदियों से
जवाब में हम
मुसकुराकर सब ठीक है कहते थे
दुख सुनने की फुरसत का अभाव रहा है धरती पर

दुख सहने की शक्ति जब भी क्षीण पाई

मर जाने की इच्छा हुई

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