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मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास 'स्वप्नपाश'का एक अंश

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स्वप्नपाश का एक अंश

हाल में ही मनीषा कुलश्रेष्ठका उपन्यास आया है 'स्वप्नपाश'. मनीषा हर बार एक नया विषय उठाती हैं, नए अंदाज़ में लिखती हैं. ये उपन्यास भी उसका उदाहरण है. बहरहाल, उपन्यास मैंने अभी तक पढ़ा नहीं है. पढने के बाद लिखूंगा उसके ऊपर. फिलहाल इस अंश को पढ़िए और लेखिका को शुभकामनाएं दीजिए- मॉडरेटर 
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मैंने खुद को व्यस्त कर लिया. दिमाग़ से खुरच - खुरच कर रुद्र को निकाल दिया. मैं पान - पराग खाती. वोद्का और ट्कीला शॉट्स लेती थी. उन व्यस्त दिनों में मैं ऎसा नहीं कि अपने अजीब और भयानक ख़्यालों की ज़द में नहीं आई. लेकिन मैं काम कर पा रही थी साथ ही मैं समझ पा रही थी जल्दी ही मैं ध्वस्त होने वाली हूँ, क्रिएटिवली व्यस्त रहना मुझे सहायता कर रहा था. लेकिन मुझे शामें सबसे भयावह लगती हैं आज भी. यही समय है जब मैं अपनी सोच पर अंकुश नहीं लगा पाती, बेतरतीब होती हूँ. ठोकर खाती हूँ. चीजें फैलाती - गिराती हूँ. फिसलने लगती हूँ भीतर बने गड्ढे में. एक शाम मैं अपने ही हाथों से छूट कर गिर गई. मुझे याद है मैं कोलाबा मुंबई में फुटपाथ पर टहल रही थी, हल्की बूंदाबांदी हो रही थी सो मैंने हाथ में छाता ले रखा था. अचानक मुझे विस्मृति का दौरा सा पड़ा, मैं अहसास और समय स्थान से तालमेल गड़बड़ा बैठी.ऐसा लगा कि दिमाग़ का कोई चक्का चलते चलते रुक गया, या उसे घुमाने वाली कोई बेल्ट टूट गई हो.   जिसकी आशंका को डॉक्टर से बताते हुए मैं डर रही थी. मेरे दोस्त मेरी सनकों को एक कलाकाराना नाम देते थे और मैं निश्चिंत थी कि यह ढोंग मुझे नहीं करना पड़ा था और स्वीकृत हो चुका था. भूल जाना, मूडी होना और कभी कभी क्रूर हो जाना और गालियाँ देने तक हर कोई यह बात मान लेता. लेकिन इस बार बात पटरी से उतर गई.
मैंने चाकू से किन्हीं छायाओं पर वार करते हुए खुद को और घर की नौकरानी को घायल कर बैठी. नाना जी घबरा गए. मम्मी पहली फ्लाईट से मुंबई आईं और मुझे जबरदस्ती मेडिकल कॉलेज के साईकियाट्री वार्ड में भेज दिया गया. मेरी इच्छा के ख़िलाफ़! मुझे यही सुनाई दिया कि मैं अपने और औरों के लिए खतरनाक हो रही हूँ. मेरे कॉलेज का आखिरी साल था... मुझे जबरदस्ती दवाएँ खिलाई गईं. मुझे वार्ड में रखा गया.... जाने दो वह नाईटमेयरिशथा....मेरे उन दिमाग़ी उत्पातियों से कहीं बुरे और क्रूर थे डॉक्टर नर्सें और कम्पाउंडर....मैं यह सब नहीं लिख सकती. मेरे हाथ काँपते हैं क्योंकि वह विशुद्ध यातना थी. घर लौट कर भी मेरा अकेले में रहना, मेरी प्रायवेसी छिन गई. नहाने के समय भी मम्मी कमरे में रहती थीं बाथरूम की कुंडी खुलवाकर.
उस ध्वस्त समय में से निकल कर मैं जो 'बची'थी, और परिस्थितियों के घालमेल में जो मैं बन 'चुकी'थी, और वह खुद जो मैं होना चाहती थी, मैं इन सब के बीच की अवस्था में थी। मैंने अब तो यात्रा मानो शुरू की थी, अभी ही तो मुझे इन यात्राओं से लगाव हुआ था। मैंने अब तक सुना था जैसे तेंदुए कभी अपने धब्बे नहीं बदलते, वैसे लोग कभी व्यवहार नहीं बदलते ।  मेरे आस पास के संसार में जो जैसा पैदा हुआ वह वैसा का वैसा ही रहा, लेकिन मैंने ही अपने धब्बों को अचानक बदलते देखा।
अब मैं कॉलेज के आखिरी साल में थी आर्टेमिज़िया मेरा दिमाग़ अपने बस में लेकर समय और ऊर्जा खाने लगी. मैं अगर कुछ गलत करती जो उसे पसंद न होता वह मुझे सज़ा देती. वह सारे समय मुझ पर चिल्लाने लगी थी. ऎसा भी वक्त आया कि मैं आर्टेमिज़िया से अपने झगड़े को वास्तविक मान कर उस से सड़क पर, ट्रेन में, कॉलेज में, लाईब्रेरी में झगड़ती. लोग मुझे टोकते. चौथे साल में मुझे अपना डिग्री कोर्स पूरा करना मुश्किल हो चला था. मैं जानती थी कि केवल यही एक साल बचा था... मैं किसी से कुछ कह नहीं पा रही थी, रुद्र जिसे कह सकती थी जा चुका था.  मुझे स्किज़ोफ्रेनिकका टैग लग गया था. मुझे अपना दिमाग़ अब बिलकुल अपने बस में नहीं लग रहा था. मुझे नहीं पता था कि अब मुझे क्या करना है. आर्टेमिज़िया मुझे रोज़मर्रा के कामों से भी दूर करती जा रही थी. मैं शिद्दत से चाहती थी कि मैं अपना डिग्री कोर्स पूरा कर लूँ और कहीं नौकरी में बिज़ी हो जाऊं. मैंने कोशिश की थी कि सबसे यह बीमारी छिपा लूँ पर अब सब खुल चुका था...पर अब भी कोई समझने को नहीं तैयार था. मेरा क्लासेज़ अटैंड करना भी रोज़ के नाम पर बोझ हो गया था. मम्मी मेरे साथ रह रहीं थी, मैं रोज़ सुबह बहाना बनाती - मेरा शरीर अकड़ रहा है. मुझे पैरालिसिस होने को है. आज बुखार है...आज छुट्टी है मम्मी. मुझे क्लास मॆं कुछ समझ नहीं आता.. मैं ऑबजेक्ट पेंटिंग करते करते कुछ और बनाने लगती. बहुत कुछ अजीब. मेरा सारा समय आर्टेमिज़िया के कमांड सुनने में जाता. मैं ही जानती हूँ वह साल कैसे बीता. पर मम्मी की ज़िद और उनकी सेवा के चलते मेरा ग्रेजुएशन हो गया फाईन आर्ट्स में. लेकिन मेरी सोच बहुत - बहुत बंटी - बंटी हो गई. एक मिनट यह तो दूसरे मिनट यह. दवाएँ बंद कर दी थीं मैंने....मैं बस नींद की गोलियाँ और वोद्का लेती. कभी - कभी कोकीन!
मैडिकल कॉलेज के थेरेपिस्ट ने कभी मुझे खोलने की कोशिश नहीं की. बहुत कुछ पूछा यूँ तो बहुत कुछ पर मैं ही नहीं खुली...तब आर्टेमिज़िया बहुत बुरे मूड में थी. उसने उस डॉक्टर को शक्ल देख कर ही भरोसा करने से मना कर दिया. मत सुन इसकी बात, यह शैतान है.
मत लेना गोलियाँ” “ यह शॉक देगा.मैं अब बिखर जाने की कगार पर थी, मैंने दो - तीन जगह पर नौकरी के लिए एप्लीकेशन भेजीं थीं. आर्टेमिज़िया   ने.... मैं अब यह मान बैठी थी कि मेरे पिछले जन्म के गुनाह थे कि मेरा दिमाग़ इस कदर... मैंने मम्मी से पूछा... क्या तुम ड्रग्स लेती थीं मेरे जन्म से पहले. वे कहतीं - तुम सच में क्रेज़ी हो क्या गुल? मैंने तुम्हारे होने में सबसे ज़्यादा बैलेंस्ड डाईट ली. लगातार नाचती रही..”  मुझे लगता इनके नाचते चले जाने ने, सातवें महीने तक मेरा कबाड़ा किया है. मेरा मन मर जाने को करता था डॉक्टर. मुझे किसी पर विश्वास नहीं होता था. मैं उन पर चिल्लाती, गालियाँ देती. एक दिन वे दुखी होकर वे लंदन चली गईं. वहीं अपने भाई के पास रहने लगीं. मैं जानती थी, मेरी मम्मी शुरु ही से पलायनवादी हैं. वरना उन्होंने पापा की हत्या का केस लड़ा होता.
मम्मी को गए दूसरा महीना हुआ होगा कि मुझे मम्मी को फोन करके वापस बुलवाना पड़ा नाना को पहला हार्टअटैक पड़ा था। मम्मी चाहती थीं कि यह घर बेच कर हम तीनों लंदन चले जाएं। वे नाना को मनाने में सफल हो गईं पर मैं नहीं गई। कितना गर्वीला और निष्ठुर होता है न यौवन।
मैं अब स्वतंत्र थी, आत्मनिर्भर. मुझे अपने लिये ज़रिया - ए - माश खोजना था. उनके जाने से पता नहीं क्या हुआ सब शांत हो गया. मुझे एक प्रायवेट आर्टगैलेरी में नौकरी मिल गई, आर्टेमिज़िया गायब हो गई और मैं सुकून से चित्र बनाने लगी. मेरे वो दिन अपूर्व थे. मेरे शत्रु भाग गए थे. माया-जाल टूट चुका था. मैं थोड़ा - थोड़ा स्वीकृत हो रही थी चित्रों की दुनिया में, सामाजिक तौर पर भी मेरे मित्र बन रहे थे. मेरा मन संतुलन के झूले पर शांति के गीत गा रहा था. मैं पूरी ताकत से बुरी चीजों को एक - एक कर अपने से परे धकेल रही थी. आश्चर्यजनक तौर पर मेरी याद से मेरे डर और पापों की कहानियाँ गायब हो चुकी थीं.
मेरे दूसरे पेंटरों के साथ आरंभिक शोज़ हुए, अच्छे रिव्यूज़ मिले. मैं शांत और खुश थी अपने घर और घर में अपने स्टूडियो के स्वर्ग में.
यह उस साल की गर्मियों के उतरते दिनों की बात है. मुंबई में मेरे चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी हुई थी. एक कला दीर्घा में मेरे चित्र सराहे गए और अगले दिन के टाईम्स में सकारात्मक रिव्यू भी आया था. एक पत्रकार पूछ रहा था कि चित्रों की पहली सीरीज़ के पीछे मेरा प्रस्थान बिंदु क्या था? मैं उसे उत्तर ही नहीं दे पाई, हकलाने लगी क्या कहती? मुझसे कुछ कहा ही नहीं गया. बस यह कहा कि बचपन में कहीं शुरु हुआ था. उस वक्त मैं यह सोचने लगी कि क्या वह प्रस्थान था? या कि पलायन? मुझे अपना बचपन याद आगया, जब मैंने पहली बार मम्मी से कहा था कि -
मम्मी सच...सच में मुनक्यो है..मम्मी से मैंने ज़िद की कि मुझे रंग लाकर दो. मैं बना कर दिखाऊंगी ...ऎसी है मुनक्यो”  ऎसे  तो मैंने पेंटिंग करना शुरु किया. मम्मी ने मुझे अपनी स्टडी का एक कोना दिया. छोटी - छोटी ट्यूबों में भरे जलरंग, रंगीन पेंसिलें, हर तरह के ब्रश एक चौकीनुमा ज़मीन से ज़रा उठी टेबल और एक बंडल ड्रॉईंग के कागज़. मैंने मुनक्यो के चेहरे को बड़े ध्यान से पेंसिल से रचा, गोल - फूले गाल, दबी हुई छोटी नाक और लगभग बड़ी मक्खी जैसी आँख़ें और उसके पंख सी फड़फड़ाती बरौनियाँ. पतले - पतले भिंचे होंठ और बड़ा सा माथा, ढेर सी स्प्रिंगों सरीखे बहुत घुंघराले बाल. पेंसिल स्कैच देख कर मम्मी खुश हुई. जब मैंने रंग भरा और उसके त्वचा के रंग को क्रोमियम हरा रंगा तो मम्मी ने कहा - बकवास!  भयानक!
अपने इन उत्पातियों के चित्र , मैं क्या हर स्किज़ोफ्रेनिक रचता है. क्योंकि कोई मानता नहीं कि उनके साथ कोई है. पेंसिल से नहीं तो कोयले से, नहीं तो खड़िया से. हाँ  मैंने अपने  वार्ड में देखे थे...कई कई...गुमसुम, मिट्टी में उंगलियों को फंसाकर कुछ न कुछ रचतेहम कहाँ ले जाएँ अपने दिमाग़ों के इन उत्पातियों को? इन आवाजों से. इन आदेशों से...पलायन के चार रास्ते थे. आत्महत्या, पेंटिग, डायरी और सेक्स....हम्म.
उन्हीं दिनों एक अच्छे एडवांस के साथ एक आर्ट कलैक्टर ने मेरे साथ कॉन्ट्रेक्ट भी किया. उसका नाम संगीत सालुंखे था. उसने मेरे पहले शो की सफ़लता पर एक छोटी सी पार्टी रखी अपने फ्लैट में. उसमें उसने मुंबई के कलाजगत के लोगों को बुलाया था.
यह मेरी ही बेवकूफ़ी थी कि मैं पार्टी के बाद उसके फ्लैट में रुक गई  थी.  वहाँ  रुकते समय मेरे मन में उसके साथ रुकते हुए अपने जेंडर का ख़्याल भी नहीं आया था. मुझे बस किसी साथ की ज़रूरत थी उस रात. मैं बहुत दिनों से एक दोस्त की तलाश में थी, जिससे बात कर सकूँ.  उस पर कोकीन के नशे ने मुझमें हिम्मत नहीं छोड़ी थी कि मैं कार चला कर घर जा सकूँ.  जब हम बिस्तर पर लेटे तो वह मेरे शरीर पर झूमने लगा. मेरी पीठ से खुद को रगड़ने लगा. मैं उससे कहती रही, मेरा ऎसा कोई मन नहीं है, नहीं, मुझे सेक्स नहीं चाहिए. उसे पता था मैं सच ही में कोई स्पर्श भी नहीं चाहती. लेकिन कुछ देर बाद उसने मुझे पलटा लिया और कर डालाक्योंकि मैं मना करते - करते थक गई थी और वह कोशिश करते करते नहीं थका था. मैं सहज रिश्ते बनाना चाहती हूँ. पता नहीं लोग शरीर क्यों ले आते हैं? ऎसा क्या है इस शरीर में?
बीच रात जब मैं उठ कर उसके फ्लैट से लगी आर्ट गैलेरी में पहुँची. वहाँ मैंने पहली बार छिन्नमस्ता की पेंटिंग देखी. छिन्नमस्ता एक देवी, जो एक संभोगरत युगल पर चढ़ी हुई थी . उसने अपना कटा सिर हाथ में लिया हुआ था.  दो योगिनियाँ उस मस्तक से फूट रही रक्त - धाराओं को अपने खुले मुंह में ले रही थीं. अचानक मुझे एक भीषण संगीत सुनाई पड़ा -  नगाड़ों और टंकारों का. एकाएक बहुत से बैलों की भगदड़ से कमरा भर गया.  मैं  बहुत दिनों तक नाना  के साथ योग, हठयोग  करती रही हूँ अपने दिमाग़ की आवाज़ों से निजात पाने के लिए. अकसर सफल भी हुई हूँ.  नाना के कहने से मैंने अपनी ऊर्जा कुंडिलिनी और चक्रों में भी एकत्र की है. मैंने अपनी आत्मा को नीली रेत घड़ी में सुनहरी रेत सा झरते हुए देखा है. मैंने उस पेंटिंग के आगे बैठ खुद को एकाग्र किया लेकिन मैंने योगिनियों को पेंटिंग से निकलते नाचते पाया. मुझे उस पल लगा कि मैंने अपनी कुंडलिनी इतनी जगा ली है कि मैं उसे बंद नहीं कर पा रही...और ये योगिनियाँ और पिशाच मुझसे घृणित यौन क्रियाएँ कर रहे हैं.
मैं गैलेरी से बाहर निकली और मैंने एकदम नंगे सोए हुए सालुँखे पर अपना पैर रख दिया था, मेरा कटा सिर मेरे हाथ में था और योगिनियाँ और पिशाच उसके आस - पास नाच रहे थे. नगाड़े - दमामे बज रहे थे और मेरे आंसूँ निकल रहे थे. सालुंखे उसी हालत में चीख कर बाथरूम में घुस गया और डर के मारे सुबह तक नहीं निकला.
मैं सुबह उठी और कार चला कर घर आ गई.  जामरुल का पेड़ अपने पत्ते झड़ा झड़ा कर उजड़ा खड़ा मुझे लानतें भेज रहा था. मेरी ज़िंदगी एबनॉर्मल थी. मेरे उस दिन के रूप से सालुंखे शायद बुरी तरह डर गया था...पर वह मेरे चित्र बेचता रहा. मुझ तक मेरे चित्रों की कीमत पहुंचती रही.  आगे उसने मुझसे एक दूरी बरती और मेरे नाम के आगे जीलगाने लगा. अब मेरी स्थिति और अलग स्तर पर पहुँच गई थी. सेक्सुअल भ्रम के अतिरेकों ने मुझे हिला दिया था. मेरे पास कुछ बहाने थे उन भ्रमों के लिएजिन्हें मेरा मन मान लेता लेकिन  दिमाग चीख पड़ता. मैंने बहुत दम लगा कर पान - पराग, कभी - कभी मस्ती में ली जाने वाली कोकीन छोड़ दी थी. सिगरेट मैं नहीं पीती. मैंने मेडिटेशन भी बंद कर दिया. जाग्रत कुंडलिनी की ओर एकाग्रता को चित्रों में झौंक दिया, मेरी पोर्ट्रेट्स वीभत्स तौर पर न्यूड होने लगीं..जिनमें कुछ अजीब प्राणी देह कुतर रहे होते. बिना निपल्स वाले रक्त सनी छातियाँ...और रक्त बहाती योनि..और उस कुंड पर जीभ चलाते छोटे पंख वाले, सूंड - नलिकाओं वाले क्रूर विशाल कीड़े. शिव और शव के सीनों पर नाचती भैरवियाँ.
मैं बहुत परेशान हो रही थी और मैं किसी अपने के साथ शिफ्ट होना चाहती थी. माँ तो नाना को लेकर लंदन चली गई थीमेरी एकमात्र रिश्तेदार चचेरी बहन शिफ़ा ने मुझे कभी भी चले आने और डिनर साथ करने का तो निमंत्रण दिया लेकिन साथ रहने के विषय को वह टाल गई.
मैं अपने अकेलेपन में लगातार चित्र बनाती रही मैं लेकिन वहम होने बंद नहीं हुए बढ़ गए. मेरा उन पर कोई बस नहीं था. मेरे दिमाग़ में कोई रोशनी जलती और कोई रंगमंच जाग्रत होता और उस पर नित नया खेल. देवदूतों की जगह पिशाच ले रहे थे...शुरु में तो मुझे लगा सड़क पर माईक्रोफोन लगे हैं और कुछ घटिया लोग कुफ्र बक रहे हैं. पर घर में? मैं टीवी को देखती वह बंद होता, खिड़कियाँ मूंदती....लेकिन गालियाँ और गंदे कमांड. मैं रो पड़ती सारे देवी - देवताओं को बुला डालती... चुप कराओ इन ...मादर...बहन....के...को!!!!!! मुझे संशय हुए कि मेरी मॉम ने  सायकियाट्री वार्ड’  के उस क्रूर इलाज के दौरान मेरे दिमाग़ में माईक्रोचिप लगवा दिए हैं. ताकि मैं उनके कंट्रोल से न फिसलूँ. उन्होंने मुझे एपल का एक नया फोन भेजा था, मुझे लगा उस माईक्रोचिप को कमांड इस फोन से मिलते होंगे...जो उन्होंने मुझे देने से पहले इसमें फीड किये होंगे. एक रात मैंने उसे तोड़ डाला.
मैं सो नहीं पाती थी क्योंकि पानी गिरने की, झिंगुरों की, चूहों के रेंगने की आवाजें आती रहतीं. मुझे शक होता कि बगल में रहने वाला बुड्ढा सिविल सर्वेंट अपनी कमसिन नौकरानी को फुसला रहा है. मुझे हर कोई मॉलेस्टर दिखता था. मैं पूरी तह फिसल रही थी पैरानॉईक स्किज़ोफ्रेनिया में....और मुझे इस बीमारी का भी नहीं पता था.
सुबह उठ कर यकीनी तौर पर मैं यह मानती कि यह शराब, पान पराग, कोकीन छोड़ने का नतीज़ा है. ये वहम हैं, वहशत नहीं. मैं सामान्य हूं. मैं स्वस्थ हूँ. मैं ज़िंदगी में सीधा चलना चाहती थी, लेकिन कहीं कोई स्टियरिंग गड़बड़ था मेरे जीवन की गाड़ी का. मेरे मन में आया कि इन वहमों और वहशतों को किसी से तो कहूँ? मॉम! वो नहीं समझेंगी....
डॉक्टर मृदुल सक्सेना जब मिले....उससे बहुत पहले मैं आवाजों से घिर चुकी थी. आवाजें जो मुझे स्ट्रिक्ट कमांड करती थीं - ये कर डाल!!! मैं अपने आस - पास के लोगों को देखती और लगता कि उनके चेहरे सांप या गुर्राते हुए दाँत दिखाते बाघ में बदल गए हैं. आर्ट गैलरी की रिसेप्शनिस्ट की लाल लिप्स्टिक से मुझे लगता कि अभी इसने चौकीदार को निगल लिया है. मैं सोना चाहती आवाजें जगातीं. मुझे लगता कि मैं किसी गोले में घूम रही हूँ. मुझे ख़ुदा पर गुस्सा आता, कहीं कोई इबादतगाह दिखता - मैं गालियाँ देती खुदा को, भगवान को, मसीह को... मैं ही क्यों? अस्पताल में सारे टैस्ट जो हो सकते थे हो चुके थे. जब मोटा थैरेपिस्ट बोला कि मुझे पैरानॉईड स्किजोफ्रेनिया है, तो मन किया उसकी गर्दन ही तोड़ दूं. बस कयास लगा रहा है. मुझ पर एंटीसायकोटिक दवाएँ आजमाई जाने लगीं. जाने कितनी दवाएं अदली - बदलीं.अस्पताल के दिनों में मैं ने एक थैरेपिस्ट को कहते सुना था - सायकोसिस ग्रुप की मानसिक बीमारियों की दवाओं के साईड इफेक्टों में एक इफेक्ट सायकोसिसही है. मेरे नित नए होते मतिभ्रम क्या इन दवाओं की वजह से थे? मेरी सायकोसिस कभी जा नहीं सकती यह यकीन मुझे हो गया था. मुझे लगा मेरा शरीर ज़हर का घर बन रहा है, साईड इफेक्ट्स... इस बीच मैंने दो बार आत्महत्या की कोशिश की. मैं इन उत्पातियों से भरे दिमाग़ से निजात चाहती थी. एक रोज़ मेरे  भीतर ही कहीं सोई आर्टेमिज़िया ने लौट कर मुझे हैरान कर दिया ... मैं उस रोज़ आईना देख रही थी कि मैं ने अपने सर पर एक साफ़ासा महसूस किया. मेरी ठोड़ी में गड्ढा गहरा गया. मेरी आवाज़ बदल गई. मैं नंगे पुरुषों के दयनीय चित्र बनाने लगी. मैं खुद अब डर कर आर्टेमिज़िया को खोजने और उसकी हर बात मानने लगी थी. जैसे कि कोई डूबते जहाज से चिपकता हो...कि डूबना तो है ही धीरे धीरे.
डॉ. मृदुल सक्सेना से मिलना मेरे लिए संयोग था. मैं एक पोर्टल स्किज़ोफ्रेनिया बुलेटिनपर अपनी बीमारी की दवाओं के बारे में पढ़ रही थी, वहीं मुझे डॉ. मृदुल का आर्टिकल मिला. क्या टॉक थैरेपी स्किज़ो मरीज़ों को ठीक कर सकती है.इस विषय पर उन्होंने बहुत खोल कर, एक उम्मीद जगाने वाला लेख लिखा था. किन्हीं सी बी टी टैक्नीक्स का ज़िक्र किया था. कॉग्निटिव बिहेवियरल थैरेपी. जिसमें कई मौखिक - लिखित - प्रायोगिक एसाईनमेंट के ज़रिये बीमार दिमाग़ को नए ढंग से वास्तविकता का संज्ञान लेने का निरंतर अभ्यास कराया जाता है. डायरी लिखना भी उनमें से एक था. उसमें उनका ई - मेल पता दर्ज था. मैं ने एक दिन उनको ई-मेल कर दिया.
रात ही से बारिश हो रही थी, सुबह भी गीली - गीली थी. मैं छाता लिए  डॉ मृदुल के क्लीनिक के बाहर खड़ी थी।  मैं अपनी कोई पुरानी रिपोर्ट, कोई पुराना पेपर किसी अस्पताल का अपने साथ नहीं लाई थी। मैं अपने साथ सारी आक्रामकता लाई थी, साथ ही अपना हकलाता हुआ, डरा - डरा अतीत! भरम, आवाज़ें और अपनी गलतियां। इनसे ही इनका अगर वह इलाज कर सकता था तो ठीक था। वरना मुझे सायकोटिक ड्रग्स और वोद्का में कोई फर्क नहीं दिखता था अब।
मेरा सिरफिरापन मेरी अदा नहीं है, यह मुझे बहुत अच्छी तरह समझ आ गया था सो मैं आत्मविश्वास से शून्य थी। मैं उसके क्लीनिक के बाहर बैंच पर बैठ कर अच्छी तरह रो ली थी। सहन में लगी जोगिया बोगेनविलिया की लतर, सुबह हुई बरसात की कुछ बूंदें चुरा कर बैठी थी, जिन्हें उसने मुझ पर बरसा दिया।
मैंने मम्मी को वादा किया था कि मैं उनके बिना आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सफल होकर दिखाऊंगी. लेकिन मैं बुरे हाल में थी ये वे जान गईं थीं और मुझे वहाँ बुला लेने पर अड़ी थीं. लेकिन मैंने मम्मी को तैयार कर लिया था कि वे मुझे छ: महीने और देंगी कि मैं अपना ख्याल रखते हुए कुछ महीने यहाँ और बिता लूँ. मेरी किस्मत! मैं सायकियाट्रिस्ट के क्लीनिक के आगे खड़ी थी।  अच्छी तरह से रोकर मुंह पौंछते हुए मैं उठी थी कि  इस विचार ने मुझे फिर रुला दिया। मेरा मुझ पर कोई कंट्रोल नहीं था। फिर भी मुझे पता था इस हालत में भीतर जाना ठीक नहीं, वह तुरंत इंजेक्शन बनाने को कहेगा वह अपने कंपाउंडर को। मैंने टिश्यू से मुंह पौंछा, बॉटल से पानी पिया। लिप ग्लॉस लगाया, आँखों में कोल पेंसिल घुमाई।  मुस्कुराने की प्रेक्टिस की और भीतर आ गई।
रिसेप्शन पर कोई नहीं था, मैं सीधे डॉक्टर के कमरे में। वह कुर्सी पर अपनी देह को तानने की मुद्रा में हाथ उठाए हुए था कि मैं घुसी, उन्होंने जल्दी से हाथ गिराए और चश्मा उठा कर पहना। मेरे अभिवादन का जवाब दे कर इशारा किया बैठने का ----- इस अलसाते जीव के आगे ब्लाह ब्लाह करने से मेरा जीवन बदलने वाला कुछ नहीं था, यह मैं जानती थी । 'कुछ तो राहत'मेरी तलाश थी।
टॉकिंग थैरेपीज़ और सीबीटी के बारे उसके लेख का दावा था कि एक साल में पंद्रह सेशन मुझे बेहतर कर देंगे. आगे खुद अकेले जीने का ढब सिखा देंगे. पहली नज़र में डॉ. मृदुल मुझे खुद बेढब लगा. औसत कद, ढीली - ढाली शर्ट, हल्की सी तोंद और घने बालों का बिखरा गुच्छा. बहुत दिन से मानो हेयरकट लेना भूल गया हो. मेरा मन किया कि इसके बालों में रबरबैंड लगा दूं. फिर बात करूं. मुझे याद है स्कूल के दिनों में पहली बार मैं जब मम्मी के साथ एक डॉक्टर के पास गई तो वे डॉक्टर की शक्ल देख कर मेरा हाथ पकड़ कर लौट आईं और पापा से बोलीं - काउंसलर खुद सायको - सा था!मैं नहीं लौटने वाली. मैं अब और अपने दिमाग़ के उत्पात बर्दाश्त नहीं कर सकती थी. आर्टेमिज़िया फिर - फिर आकर मेरा होना दूभर कर रही थी. मैं जीना चाहती थी और मेरा दिमाग़ मुझे मरने को उकसाता था.
अपने क्लीनिक में बैठा वह मेरी प्रेस्क्रिप्शन देख रहा था. जिसमें केवल मेरा नाम और प्रोफेशन लिखा था. फिर उसने मुझे मेरी कुर्ती से ऊपर इंच इंच निगाह उठा कर देखना शुरु किया. उसकी निगाह ने सत्रह सैकंड लिए मेरे चेहरे तक पहुँचने में. मेरी उंगलियों की अंगूठियों को अजीब तरह से घूरा. बहुत साधारण ढंग से जब उसने पूछा - मैं क्या सहायता कर सकता हूँ तो यकीन मानिए मेरा उसके दावों पर से यकीन उठने लगा. मैं रुआंसू हो गई और बहुत सतही ढंग से बताने लगी कि मैं मानसिक दबाव में हूँ.
उसने मुझे भीतर अपने सायकियाट्रिक - काउच पर अंधेरे में लिटा दिया. फिर बोला - शुरु हो जाईए. मैं असमंजस में - कहाँ से शुरु हो जाईए?, वह बोला - जहाँ से मन दुखता हो. मैं शुरु हुई तो रुकी ही नहीं बताती चली गई. तीन सेशन तो इस मौखिक ऑटोबायग्राफीमें चले गए. फिर उसने अगले सेशन में टॉक थैरेपी और सीबीटी शुरु किया. सबसे पहले उसने मुझे सिखाया कि कैसे मैं अपनी एक साथ आ धमकती सोचों में से सबसे अच्छी वाली कैसे चुनूँ. मैं सोचती थी ये ख़्यालों का हुजूम बस रेले की तरह आता है और मेरा जीना मुश्किल करता है. लेकिन मैंने अभ्यास से सीखना शुरु किया कि - मैं क्या सोचना चाहती हूँ.
मुझे लगा कि वह मुझे ढेर से अजीबो - गरीब दिमाग़ी खेलों - गिनतियों और अभ्यासों में लगाएगा. बहुत से मनोविश्लेषण के सवाल करेगा. लेकिन ऎसा कुछ नहीं करना पड़ा मुझे. मुझे बहुत सहज लगी हर बात. मसलन हर सुनाई और दिखाई देने वाले हैल्युसिनेशन पर डायरी लिखना, वास्तविक - अवास्तविक को पहचानना, अवास्तविक आवाजों से खुद को अलग करना. दिखाई देने वाले भ्रमों पर स्वयं हंसना. अकेले में हवा से बात करने से बचने के लिए इयर फोन पर कोई मनपसंद ऑडियो - बुकसुनना. ये अभ्यास समय ले रहे थे अपना.
कुछ महीने नहीं पूरे एक साल मैं मुंबई में ही रही, धीरे - धीरे आत्मनिर्भर होते हुए. नई टॉकिंग थेरेपीज़ और बहुत धैर्य के साथ मेरा साथ देते डॉक्टर मृदुल के साथ एक साल शांति से बीत गया. बीच - बीच में हालात कई बार बिगड़े मगर हर पेनिक कॉल पर वे तुरंत हाज़िर हुए. मृदुल ने आहिस्ता से नई अमेरिकन दवाएँ बहुत छोटी डोज़ में देना शुरु किया. वे मँहगी थीं पर मम्मी ये खर्च बाख़ुशी उठा रहीं थीं. वही कोरियर से भिजवाती भी थीं.
नवंबर का महीना मुंबई शहर पर शबाब बन कर छाता है, सारे धर्मों के त्यौहारों की शुरुआत, हवा में से नमकीन चिपचिपाहट कम हो जाती है।  कलाएं नींद से सोकर जागती हैं, तरह तरह के थिएटर ग्रुप, आर्ट वर्कशॉप्स, क्लासिकल डांस और बैलेज़ के कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं।
मुझ पर मृदुल की थैरेपी और सटीक मॉनिटरिंग के साथ दी जाने वाली अमरीकन दवाएं बिना साइड इफेक्ट मुझ पर असर कर रहीं थीं, मैं जमकर पेंट कर रही थी।  मृदुल और मैं दोस्त बन रहे थे। हम अकसर साथ कई एग्जीबिशन और कार्यक्रमों में जाते।  मेरे शरीर में अनोखे परिवर्तन हो रहे थे। मेरे शरीर में थिरकन रहती। मेरी पूरी देह एक नया आकार ले रही थी। मेरे मन और भावनाओं में एक संतुलित आंदोलन पैदा हो रहा था।
धीरे - धीरे मैं अपने आप से शर्मिंदा होने लगी. मुझमें मृदुल के लिए अहसास जगने लगे थे. जिन्हें मैं दबाना चाहती लेकिन काउंसलिंगके वे पचास मिनट का एकांत और अंधेरा मुझे उकसाते थे. मैं अपने काउंसलिंग - सेशन से हमेशा हताश और उखड़ी हुई लौटती. मैं लौट कर उसे भूल जाना चाहती थी. मैं अपने अहसासों से झगड़ती, लेकिन वे टलते नहीं. मुझे लगने लगा था कि अब उसकी ये थैरेपीज़ मुझ पर उलटा असर न करने लगें. मैं इसे लवया लस्टदोनों नाम देने से खुद को बचाना चाहती थी. एक दोस्त, एक खैरख़्वाह बल्कि थैरेपिस्ट!! मैं ठीक हो रही थी और अधूरा ठीक होकर छूट जाने का अर्थ...आर्टेमिज़िया   और आवाज़ों की वापसी.
जब भी कभी पैनिक अटैक पड़ता मैं मृदुल को अपने पास रोकना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह मन और दिमाग़ के साथ अब इस शरीर की गुत्थियां खोले और निश्चय ही इस बार मैं पूरी स्वस्थ मानसिकता के साथ एक पुरुष के साथ होऊंगी। मैं कल्पना करती और शरीर लहर - लहर हो जाता। हर सुबह मैं तरोताजा उठती। खुशमिजाज़ी, बेफ़िक्री मेरे मिजाज़ में आ गई थी। अंदर से उसे देखते ही तेज़ नशीली इच्छा होती कि उससे लिपट जाऊं।  मैं बहुत बार समझाती मन को, ये पागलपन किसके लिए? एक औसत कद के, साधारण चेहरे पर चश्मा लगाए एक अड़तीस साल के सायकोथैरेपिस्ट के लिए? जो तुम्हारा डॉक्टर है!
उसकी आंखें समुंदर दिखतीं और होंठ क्यूपिड की कमान, हल्की सी तोंद को वह क्यूटू कह कर सहला देना चाहती थी। यकीनन यह असल कैमिकल लोचा था, वरना दुनिया के सारे उसके हमउम्र मर्द मर नहीं गए थे। लेकिन वह परवाह करता था.
उन दिनों की डायरी-थैरेपी का एक पन्ना, जो मैंने उसे देने से पहले अपनी फाईल में से हटा दिया था.
मेरी चाय आजकल उसके क्लीनिक की कॉफ़ी की तरह महकती है. मैं सुबह उठती हूँ, ठंडे - गरम पानी के डिसपेंसर को ऑन करती हूँ. अर्ल ग्रे मेरी पसंदीदा चाय जिसे गर्म पानी मिलते ही संतरों और नींबुओं जैसा महकना चाहिए, वह आजकल तुर्श महकती है. अगर यह किसी के इश्क़ में होना है तो बहुत अजीब है.
वह शहर में नहीं है, अपने माता- पिता के पास आगरा गया है. मैं उसकी ज़रूरत शिद्दत से महसूस कर रही हूँ. मैं उसे फोन मिलाती हूँ. लेकिन कितनी अजीब बात है ना कि मैं उसी को नहीं सुनती. बल्कि मीलों पार से आती उसकी आवाज़ के बैकग्राउंड में क्या - क्या है, वही मुझे सुनाई पड़ता है. मंदिर के घंटे, ऑटो वाले से उसकी बात, मैना की टिटकार, कुछ नहीं तो कोई आकर जब उससे रास्ता पूछने लगता है। वह मुझसे बात रोक कर उसको जो बताता है, वही बस मेरा जहन पकड़ता है- वह तो पीछे वाली रोड है, वापस लौटो....हाँ वहाँ से आठ किलोमीटर होगा।
वह घर से दूर आकर मुझसे बात करता है. मेरी  परवाह और सरोकार की बात. लेकिन कुछ देर बाद मैं वह सब क्यों नहीं सुनती जो वह कह रहा होता है, बल्कि यह कल्पना करती हूं वह किसी नीम तले खड़ा है, छाया ढूंढ कर। कहीं और जाने की कह कर यहाँ आ रुका है, चिलचिलाती धूप मेंबहुत व्यस्त और चलती - जलती हुई सड़क पर। माना शब्द असर करते हैं  पर मेरे जैसों के लिए यह असर कितना बड़ा होता है.  कि भीड़ में एकालाप में व्यस्त एक आदमी, चलती - फिरती क्रूर और स्वार्थी दुनिया में  किसी को बचाता हुआ. किसी को आश्वस्त करता हुआ कि यह शाम नहीं है, सवेरा है। यह धूप नहीं है, छांह हैं। तुम्हारे पैर की चप्पल के नीचे पिघलता कोलतार नहीं है, मेरे  अहसास है।
उसे लौटना है, वह जल्दी - जल्दी बहुत कुछ कहना चाहता हैउसके शब्द चने खाने वाली मछलियों की तरह किलबिल किलबिल करते हैं, कुछ कह पाता है बहुत कुछ रह जाता है। पर वह समझ लेती है, अनकहा ही नहीं अनसोचा, अमूर्त भी जो पीछे आती आवाज़ों की कहानियों में दर्ज़ होता रहा जहन में।
मैंने अपने अहसास खूब छुपा कर रखे. मैंने अपने आपको बीमार ही समझा. लेकिन मुझे अब यह मह्सूस होने लगा था, मृदुल की ज़िंदगी का पानी अब लहर - लहर होने लगा है....औरत हूँ छठी इंद्री..फिर मेरी तो नवीं दसवी इंद्री भी खुली है... हमारी टोक थैरेपी के एकांत के पचास मिनट हम दोनों ही बहुत संजीदा रहते कि कहीं गलतफ़हमी न हो जाए...एक साल बाद पहली बार उसने मेरे दाँए गाल पर हाथ लगा कर पूछा था, “ यह निशान क्या है?” मेरा मन पिघलने को हुआ. पर उसकी ठंडी निगाह ने सब जमा दिया था. मुझे वह अपील कर रहा था फीज़िकली, इमोशनली.... मैं भी उसे अनूठी लगी जब वह मेरी ऎग़्ज़ीबिशन में आया - उसने मुझे, कंधे से पकड़ा और कहा - गुलनाज़ तुम सचमुच इतनी बड़ी पेंटर हो? मुझे यकीन नहीं होता. उसे मुझसे एक आकर्षण ज़रूर था जिससे वह बचता था. वह मेरे लिए अपनी हदों से बाहर उठ कर आता था. मैं जानती थी मैं अपने बिखरे वज़ूद और प्यार की भीषण भूख के साथ आई, मृदुल को लगा कि मैंने उन्हें उनके प्रोफेशनल एथिक्स से हिला दिया. मैं पहले सिंसियर मरीज़ ही थी. मेरी तरफ़ से कोई जाहिराना पहल भी नहीं हुई. हाँ, मेरी हर चीख पर उनका आना, घंटों मेरे साथ रहना... मेरी आत्महत्या की असफल कोशिशों पर उनका मुझे अपने से लिपटा कर समझाना. मुझे पहले भरोसा हुआ प्रेम नहीं. मेरी बेवक्त की फोन कॉल वो घर से बाहर निकल कर उठाते मुझे समझाते घंटों. कई बार दोपहरों में स्लिपर पहन कर ही पैदल बाहर आकर....मैं कभी - कभी हताश होती थी क्योंकि वह विवाहित था और संतुष्ट भी विवाह से. यह गनीमत थी कि मैंने कोई वैडिंग रिंग नहीं पहनी थी अब तक. उसने मुझे अपनी फेवरेट मरीज़के अलावा कुछ नहीं कहा.
मैं इन सैशनों से थोड़ी छुट्टी चाहती थी. ईश्वर ने बहुत खराब तरीक़ा अपनाया. नाना को एक और अटैक के साथ पैरालिसिस हो गया. मम्मी को पहली बार फोन पर फफ़क कर रोते पाया मैंने उन्हें, उनके फोन संतुलित संयमित संक्षिप्त हुआ करते थे। मुझे डर लगा कि मैं नाना को कहीं खो न दूं। पिता की तरह कोई अंतिम छवि ही न रह जाएसो मैं उनके पास लंदन चली गई. मृदुल मुझे एयरपोर्ट पर छोड़ने आए थे, मैंने लाउंज के भीतर के कांच से मुझे देखता हुआ उसका चेहरा देखा, मैं कई घंटों उदास रही. वहाँ पहुंच कर भी ऎसे कई दिन आए जब मुझे लोगों के चेहरे में उसकी छवियाँ दिखतीं. अनजान गलियों में, मैट्रो स्टेशनों पर... किसी पार्क में.
इस बार का अक्टूबर बहुत गर्म और रूखा सा लग रहा है। मैं मुड़ कर देखती हूं तो मुझे उस बरस के उस अक्टूबर के दिनों पर आश्चर्य होता है. उत्साह, जम कर पेंटिंग, मेरे स्वभाव के उलट दोस्तियां, निभाव. इस साल मैंने यात्राएं चुन लीं. मैं कुछ महीने लंदन रही. वहाँ मैंने अपने कई पुराने चित्र इंटरनेट के ज़रिए बेचे. समकालीन पेंटरों के एक समूह से जुड़ी और पेरिस जाकर फ्रांस के कुछेक आर्ट क्यूरेटर्स से मिली. कुछ अच्छा रहा, कुछ बुरा. मम्मी ने मुझे वहाँ के कला -क्षेत्रसे जुड़ने में मदद की.
मम्मी जब भी मेरे साथ बाहर जातीं लोग मुझे उनकी छोटी बहन समझ बैठते। यह बात उन्हें खुश कर जाती, पर मुझे नहीं।  अब्बू के जाने के बाद इनका जिस्म और छरहरा हो गया था । उनके तपे तपे सुनहरे जिस्म पर हर रंग फबता है। नारंगी और  जामुनी ख़ास तौर पर।  उनका टेस्ट भी बहुत उम्दा है। उनका ग्रेस और मैनरिज्म ! अजनबी लोग तक लोग उनकी चाल देखकर ही पूछ बैठते हैं - आर यू अ डांसर? आप नाचती हैं?
 हाँ , कभी - कभी मुझे उनसे जलन होती है, फिर मैं याद दिलाती हूं खुद को, कि वो मेरी मम्मा हैं, तो जलन एक किस्म के अभिमान में बदल जाती है। मैं इस बार मम्मी के करीब आई. जैसे दो सहेलियाँ. उन्होंने अपना अंतरंग मुझ पर खोला. मैंने देखा अब मां बदल रही थीं. मैं सोचती थी कि शायद वे कोई साथ ढूंढ चुकी होंगी पापा को खोकर, लेकिन उनके फ्लर्टी संबंध पापा के रहते ही हुए. जाने क्यों अब वे बहुत सादगी से रहती हैं . डांस सिखाना, मेडिटेशन करना और पापा के नाटकों के अनुवाद करना या उन्हें नाच में ढालना उनकी दिनचर्या बन गया। मुझे उनकी शांति और सादगी से ईर्ष्या होती है।
वे खुद मुझे शादी करने, समय पर मां बनने की सलाह देती हैं. पूछती हैं, - मैंने कोई लड़का ढूँढ रखा है या वे कोशिश करें? मैं क्या उत्तर दूँवे कहीं भीतर जानती हैं कि शादी - प्रेगनेंसी और स्किज़ोफ्रेनिया बहुत घातक मेल है।  मैं मम्मी से कहती हूं - ये ज़िक्र ही बेमानी है।  क्योंकि कोई क्यों शादी करेगा मुझसे अब जब क्लीनिकली यह तय हो चुका है कि मैं.......... !!
मुझे दुख हुआ कि उन्होंने पापा के जाने के बाद नाचना बंद कर दिया था, लेकिन सिखाना ज़ारी रखा था, यहाँ उनकी दर्जनों शिष्याएँ बन गई थीं. लंदन में मां के पुरुष मित्र बने, पर उन्होंने दुबारा शादी करने का एक पल को भी नहीं सोचा, “ नहीं मैं अब वैसा भरोसा नहीं कर सकती किसी पुरुष पर जितना तेरे पापा पर था।उनकी वार्डरोब में सादगी और उदासी साथ रहते थे, जिसे वे मेरे कहने पर भगातीं. वे सुर्ख़ कांजीवरम पहनतीं या कभी कोई लंबी ब्लैक ड्रेस. हम बाहर जाते और दो सहेलियों की तरह खा - पीकर लौटते, खिलखिलाते हुए.
 उसी दौरान मेरे नाना चल बसे. तभी मुझे भीतर से लगातार लगता रहा था कि मुझे लंदन जाना चाहिए, कहीं ऎसा न हो कि...मैं उनसे न मिल पाऊं. मैं, मम्मी और मामा हम तीनों उनके करीब थे जब उन्होंने आँखें मूँदी. माँ को मैंने एक छोटी बच्ची की तरह बिलखते देखा.
उसके ठीक एक महीने बाद मैं लंदन से मुंबई लौट आई. मैं ने दवाएँ तो लंदन में ही लेना बंद कर दिया था. मैं ने वहाँ केवल दो बार उत्पात मचाया, बस्स! वहां मैं निंदासी रहती मगर सो नहीं पाती थीमुझे लगता था, मम्मी मुझे जूस में मिला कर दवा देती रहीं थीं. मैंने एक बार फोन में मृदुल का नंबर देखा था. उन दिनों मुझे लगता था टेम्स उफ़न कर ख़तरनाक तौर पर शहर डुबो रही है। हमारा घर डूब रहा है. मैं आधी रात चिल्ला कर सबको जगा देती.
मुंबई लौट कर घर साफ करना बहुत अजीब लगा. नाना की चीजें, वो तरह - तरह की तितिलियों और शलभों को जड़े कई फ्रेम. उनके पानी में रखे दाँत. उनकी छड़ी. काँच में बंद मोटे भौंरे और रंगीन मकड़ियाँ. मैं बहुत सारी धूल और इन कीट पतंगों के साथ अकेली थी. नौकरानी माया और उसकी बेटी की सहायता से रात आठ बजे तक धूल साफ़ की, खाना खाया हम तीनों ने...फिर मैं अकेली थी. मुझे मन में हल्का - सा धड़का लगा. लेकिन मैंने मन को मजबूत किया और दो वोद्का शॉट्स लगा कर लेट गई और एक मसाला बॉलवुड फिल्म देखने लगी. उस रात वहम तो नहीं हुए, लेकिन आधी रात एक भौंरा भन्न्न्न नन करता हुआ नाना के एक फॉर्मलीन भरे जार में से बाहर निकल आया. वह मेरे कमरे में मंडराने लगा. र्मैंने देखा उस पर इंद्रधनुषी रंगों की कौंध थी. उसके कवच पर सात रंग थिरक रहे थे. वह मेरी बंद मुट्ठी जितना बड़ा था, वह मेरे ऊपर मंडराता रहा, फिर थक कर मेरे तकिये पर बैठा रहा और भन्न भन्न करता रहा. मैं चादर में अंदर बंद डरी बैठी रही. सुबह डोर - बैल बजी तो वह वापस जार में जा घुसा. साठ साल पुराने इस विचित्र घर में मेरी जंगली कल्पनाएँ और वहम खूब पोषण पाते हैं यह मैं जान गई थी. मुझसे पहले मम्मी जान गईं थीं सो वे इस घर को बेचना चाहती थीं. लेकिन सुबह की धूप समंदर की आवाज़ और जामरुल पेड़ की चमकीली पत्तियाँ, नाना की आहटें मैं इन सबके साथ सदियों यूं ही रह सकती हूँ. वहम और मतिभ्रमों को लिए - लिए.
मैंने मृदुल को बताया नहीं कि मैं आ गई हूँ. मैंने उसे सरप्राईज़ दिया. अरे! गुलनाज़! दुनिया के किस हिस्से से उतर कर आ रही हो?” “ देर शाम वह अपने क्लीनिक में काग़ज सहेज रहा था. उठ कर खड़ा हो गया. उसकी आँखें खुशी से भर गईं.
सीधा चांद से उतर करमैंने उसके सामने बैठते हुए कहा.
तभी तो ल्यूनेतिक हुई रहती हो.” “ वह उठ कर मेरे पास आया और मेरे कन्धे दोस्ताना ढंग से दबाए.
तुम चैटिंग में रोमेंन्टिक को क्यूँ गलत स्पैल करते थे? तोतले हो क्या! ल्यूनातिक!हम दोनों जोर से हंसे.
पहली बार उसने मुझे डिनर के लिए बाहर चलने को कहा. पहली बार उसने अपनी पत्नी से मेरे लिए झूठ बोला. मैं वहाँ उससे बातें करती, लंदन, नाना, मम्मी और चित्रों के बारे में बताते हुए अपने दूसरे दिमाग़ से यह सोचती रही कि मेरी पसलियों तक उसकी जडें पहुंच कर उलझ गई हैं, उसके फूल मेरी कॉलर बोन तक उगने लगे हैं। उनकी पंखुरियाँ मैं दिन भर तोड़ती हूँ. बस एक यही बात तय नहीं कर पाती वह मुझे सच में प्यार करताहै या यह महज सहानुभूति है. मुझे लग रहा था कि मेरी तुष्टि नजदीक ही थी और मैं उसे न पाने की चाह में अधीर हो रही थी.
दवाओं की बात हम कल क्लीनिक में करेंगे गुलनाज़, लेकिन तुमने ज़िदंगी को लेकर क्या सोचा है?” कुछ तो भविष्य, पेंटिंग के अलावा.मैं जान रही थी कि वह परिवार बसाने, या किसी से गंभीरता से रिश्ता बनाने की बात कर रहा है. रेस्तराँ की गुनगुनाहट और पीली - झरती हुई रोशनियों में वह यह पूछता हुआ अभिभावकसा दिख रहा था.
ज़िंदगी भर लोगों से दोस्ती करने की कोशिश की मृदुल. हुई नहीं. तो अब खुद से करना सीख रही हूं। यह सबसे कठिन है, आप जानते हो मेरा आंतरिक बहुत जटिल है। अपने से दोस्ती यानि सब कुछ जानना अपने बारे में मूड्स के बारे में। और मैं यह भी जानती हूं कि जो दिखता है मेरा बाहरी सुंदर और खुशनुमा। वह बहुत खुशनुमा नहीं है. तो कैसे किसी को अपने साथ जोड़ कर बरबाद कर दूँ? इस दुनिया में दो लोग बचे हैं जो मेरी आंतरिक जटिलता जानते हैं. तुम और मम्मी. बस! मुझमें ताकत नहीं है किसी और को कनविंस करने की कि मैं क्या और कैसी हूँ. जटिल और फ्रीक!
मैं सहज लोगों से  जलती नहीं हूं पर कई बार मैं उस जगह होना चाहती हूं जहाँ और लोग हैंमैं जितना सुंदर खुद को दिखता हुआ महसूस करती हूं, आत्मविश्वासी, वह ओढ़ती हूँ मैं. मैं जानती हूँ मैं बहुत साधारण हूं . मैं अपने उपलब्धि के बड़े पलों में आत्मविश्वास डिगा कर हकलाने लगती हूं। यारबाश दिखती हूं पर भीतर से अकेली बहुत अकेली हूं। मैं लोगों के मुखौटों से टकरा कर अकसर घायल हो जाती हूं .कहते कहते मेरे काँपते हाथ से चिकन में धंसी चम्मच  मेरे हाथ से छूट गई. मृदुल ने मेरे हाथ पर हाथ रखा.
बहुत अकेले होने पर तो मैं एकदम बिखरी और बेवकूफ़ दिखती हूं। मैं चलते - चलते टकरा जाती हूं, लड़खड़ा भी। मृदुल आप ही हो जो....
इसमें ऎसा क्या है? कई बार पांच सितारा होटल और एयरक्राफ्ट में चढ़ते हुए मुझे खुद लगता है कि दरबान या एयर होस्टेस मुझे भीतर आने से रोक न दें। मृदुल ने माहौल हल्का को कहा. लेकिन मैं प्रलाप में घुस गई थी.
मुझे अकेले छूटने का डर लगता है. कई बार लगता है कि वो वहम भले थे...नयन...”“श्श, मत याद करो.
ये अकेले छूटती मैं कौन हूँ। ये  मेरा अंतस इतना जटिल क्यों है और आजकल मेरी मुठभेड़ इससे क्यूं है?”“गुलनाज़, हम सब जटिल हैं. तुम कुछ और लोगी? स्वीट? मैं तो लूंगा भई वो भी गुलाबजामुन. तुम?”मैंने सर हिला दिया.
मेरा सीटी स्कैन फिर हुआ, कई ब्लड टैस्ट. मैंने एक दिन मृदुल को खाने पर बुलाया. जो कि पूरा हादसा साबित हुआ. वह मैं नहीं बताऊंगी. मृदुल बता सकते हैं अच्छी तरह कि मैंने क्या पागलपन किया था. उसके बाद मैंने दो बार अपने हाथ की कलाई काटने की कोशिश की थी. दोनों बार मृदुल मेरे से नाराज़ हुए. मुझे भी यह नागवार गुज़रने वाली बात थी कि डॉ मृदुल को लगा कि मैं उनके ऊपर अपने आपको थोप रही हूँ. यह मेरे व्यवहार के विरुद्ध है. मुझे दोस्ती की क़द्र थी, पर उन्होंने अपनी उन ज़दों और हदों को भी मुझसे दूर कर दिया.
दूर जाते हुए लोग सबसे ज्यादा आश्वासन क्यों देते रहते हैं? अपनी ठंडी आवाज़ों में बिना आंच फूंके कहते रहते हैं, मैं हूं न, यहीं हूं, रहूंगा और हम जान रहे होते हैं, यह मुड़ने की तैयारी है, मोहलत बीतने की चेतावनी है. ठंडी आवाज़ें डराती हैं कि कोई सांप है कहीं कबर्ड में किसी कुंए से आती आवाजें और उनका गली के मोड़ पर से कहना, बस यूं गया यूं आया.... नींद की दवा के असर में सही सुन पड़ता है .... अब बस गया। जब हम सारी आवाज़ों से खुद को दूर कर लेते हैं. एक आवाज़ के अहसानमंद रह जाते हैं. उसके भुरभुरेपन पर मन टिक तक नहीं पाता झरता सीमेंट बता देता है - रिश्ते का भविष्य.
समय बीतता रहा लेकिन मेरे मन में मृदुल को लेकर गहरा जुड़ाव कम नहीं हुआ. मैं उसे याद कर बेचैन हो जाती थी.  मुझे उसके होने का वह सुकून फिर से चाहिए था. वह नाराज़ और अलग हो चुका था मुझसे... मैं जानती थी मैंने बदतमीज़ियां की थीं...उसका पीछा... एनोनिमस फोन कॉल्स ... मैंने उसके घर का पता किया. पत्नी का और बच्चों का भी. मुझे पता है यह ग़लत है और वह हैप्पीली मैरिडहै...मैं आधी - आधी रात उसे रो - रोकर फोन किए. हार कर डायरी में लिखा और स्कैन करके उसको ई - मेल कर दिया था.
मैं तो यूं ही खा़मोश बैठी थी, अपने वहम और वहशतों की दीवारों पर एन् उस पल जब तुम बगल से गुज़रे, मैं गरिमा की नदी से गिरी. और ज़रा झुकेएनउसपलमें  मैंनेचाहाथाकिसातोंपुलजलादियेजाएं. एकबीमारीका, दूसरा थैरेपी का, तीसरा सहानुभूति का, चौथा दोस्ती का, पाँचवा मूल्यों का, छठा संकोच का और सातवाँ शुचिता का. लेकिन मेरे सुख के निर्वात में ये सात रंग अंगार बन खिले.... आग के रंग पीला, लाल, नारंगी...हरा और नीला, जामुनी और अंतत: मेरा सलेटी!
मुझे ऎसा संकेत मिला कि उसकी पत्नी ने हमारी यानि मेरी एकतरफ़ा रोमेंटिक चैट पढ़ ली थी और वह दबाव में विवश हो गया. जो भी हो. मैं नहीं जानती मृदुल को एक डॉक्टर मित्र की तरह खोने की उदासी ज़्यादा बड़ी है कि उसे न पा सकने की टीस ज़्यादा गहरी. काश मैंने वह दीवार तोड़ी नहीं होती. मृदुल कुछ भी कहे यह इरोटिक ट्रांसफेरेंस नहीं था..नोप! मैं आज भी उस लंबे साथ के बचे टुकड़ों के साथ हूँ... जिस दिन ये भी चुक जाएंगे....
उसकी उपेक्षा ने बहुत कुछ छीन लिया. वही था जिसने मुझे खुद से प्रेम करना सिखाया था, सो अटपटा लगा! मैं लौट आई खुद में। वही नाना का घर, वही एकांत और बाहर निकलने से लगने वाला डर. फिर एक मरीचिका और फिर एक डग! यही जीवन है हिरण का तो यही सही.
पड़ोस में नई रहने आई एक टैरो कार्ड रीडर मेरी दोस्त  बन गई, उसने मेरे लिए प्रेम के बारे में भविष्यवाणी करने वाले कार्ड्स खोले थे. मुझे भविष्यवाणियों से नफ़रत है क्योंकि ये भविष्यवाणियाँ करने वाले वहशती लोग मेरे साथ रहते आए थे. मगर मुझे वे कार्ड पसंद आए और मैंने अपने स्टूडियो की दीवारों पर म्यूराल के रूप में ये कार्ड बनाए - लवर्स, एस ऑफ़ कप्स, टू ऑफ़ कप्स, नाईट ऑफ़ कप्स, एम्परर और एम्प्रेस. मुझे पता था अपने हर रिश्ते का भविष्य - शून्य
डॉ. मृदुल की मुझे बस एक ई - मेल मिली थी. जिसमें उन्होंने बहुत घुमा - फिरा कर अच्छा अच्छा लिखा और मुझे किसी बेहतर सायकियाट्रिस्ट का पता बता दिया था.
प्रिय मिस गुलनाज़ फरीबा,
कैसी हो? जानता हूँ अपसेट होगी. मगर मैंने तुम्हें उस जगह पर ज़रूर पहुँचा दिया है जहाँ से तुम अपने ज़िंदगी के स्टियरिंग को बखूबी संभाल सकती हो. सच कहो कि क्या यही उद्देश्य लेकर तुम मेरे पास नहीं आईं थीं?मैं कैसे कह सकता हूँ कि जो तुम्हारे मेरे बीच घटा वह केवल ट्रांसफेरेंसथा, निश्चित ही हम प्यारे दोस्त बन चुके थे. बल्कि प्यार की कोई गैर दुनियावी भाषा गड़ने लेने दो तो - मैं तुम्हें प्रेम करता था.
- मैं नहीं कहूंगा कि मैं डरपोक था या मुझे इस प्यार को निभाने के लिए अपनी दुनिया छोड़नी थी. तुमने ऎसी कोई डिमांड मुझसे नहीं की.
मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ. गुलनाज़ मेरा क्लीनिक वहीं है. हमारे मिलने की जगह भी तुम जानती हो. मेरा फोन नंबर भी. बस मैं यह चाहता हूँ कि जब हम दोस्ताना हो गए हैं तो अब एक आम डॉक्टर की तरह मुझे तुम्हारे इलाज़ करने में दिक्कत आ रही है, क्योंकि मैं तुम्हें लापरवाहियां कर लेने देने लगा हूँ.
मेरा बस इतना कहना है कि अपनी भावनाओं के इस उफान को जो मुझे भी अपनी ज़मीन से बहा लिए जा रहा था, थोड़ा संभालो. यह मेरे एक बैचमेट का नंबर है वह अमरीका में लम्बे समय तक काम कर चुका स्किज़ो स्पैशलिस्ट है. उसके पास बेहतरीन और नए तरीके हैं, कि इस बीमारी  के बचे अंश भी तुम्हारे भीतर से निकाल दे. मैं तुम्हें संसार की सबसे बड़ी चित्रकार के तौर पर देखूँ. तुम मुझे गलत नहीं समझोगी मुझ से छ: महीने दूर रहने का टास्क तुम्हें दे रहा हूँ.प्यारकेसाथ मृदुल.
मुझे नाना जी की बात याद आई -  हम सब मनुष्य है, हम अपने-अपने ईश्वर बनाते हैं भरम के। हम सभी स्किज़ोफ्रेनिक हैं. हम सब अपने दिमागों के अधीन हैं.  हमारे दिमाग ईश्वरों का निर्माण करते हैं फिर हम हम उन्हीं ईश्वरों से संघर्ष करते हैं, ये ईश्वर सामूहिक स्किज़ोफ्रेनिया से ग्रसित समाजों के दिमागों को जकड़े है।!

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