23 जुलाई को पटना में हिंदी की दुनिया में बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत का दिन था. निर्विदाद रूप से हिंदी के सबसे लोकप्रिय अपराध-कथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक पटना आये, यहाँ के पाठकों से संवाद किया. लेखक कम आये लेकिन पाठक जी जैसे लेखक लगभग साठ साल से अगर लिखते हुए अपने लेखन के दम पर अपनी विधा के शीर्ष लेखक के रूप में स्थापित हैं तो अपने पाठकों की बदौलत ही न. ‘कलम’ पटना बिहार की राजधानी पटना में एक नए तरह की शुरुआत है. लेकिन ‘कलम’ पटना और हिंदी के सुदूर क्षेत्रों तक हिंदी क्षेत्रों में हिंदी के साहित्यिक आयोजन के लिए स्थापित संस्था ‘मसि’ के लिए गया में आराधना प्रधान ने लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक को संवाद के लिए बुलाकर हिंदी में ‘लोकप्रिय’ लेखन की बदलती भूमिका की तरफ बिहार के सुधीजनों का ध्यान दिलाने का काम किया है. अगले दिन यानी 24 जुलाई को गया में जब 'मसि-कलम'आयोजन हुआ तो यह बात और उभर कर आई कि अब लोकप्रिय बनाम गंभीर से ऊपर उठकर देखने-समझने का समय आ गया है.
पटना के कार्यक्रम में जाने माने फिल्म समीक्षक लेखक विनोद अनुपम के साथ सुरेन्द्र मोहन पाठक की बहस हो गई जिससे गंभीर बनाम लोकप्रिय की बहस फिर से शुरू हो गई जो आरम्भ से ही हिंदी में किसी न किसी रूप में मौजूद रही है. सुरेन्द्र मोहन पाठक ने श्रीलाल शुक्ल के बारे में यह कहा कि रागदरबारी जैसी कृति लिखने के बाद श्रीलाल शुक्ल ने लोकप्रिय शैली में आदमी का ज़हर’ नामक उपन्यास क्यों लिखा? उनको नहीं लिखना चाहिए था क्योंकि उनको लोकप्रिय शैली का लेखन करना नहीं आता था. असल में जनवाद, आम जन की बात करने वाले तथाकथित गंभीर लेखक लोकप्रिय साहित्य का ज़िक्र आते ही सामंती होने लगते हैं, ऐसा लगने लगता है जैसे वे ज्ञान के हाथी पर सवार हों. इसलिए हिंदी के गंभीर लेखक यह मानकर चलते हैं कि अगर श्रीलाल शुक्ल ने ‘आदमी का ज़हर’ जैसा उपन्यास लिखा तो वे उस विधा का परिष्कार करना चाहते थे जबकि सुरेन्द्र मोहन पाठक और उनके जैसे अन्य लेखक लिखें तो वह पतनशील लेखन है.
हिंदी में जासूसी धारा के साहित्य को पतनशीलता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है. गोया जो गंभीर साहित्य है वह अपने पाठकों में उच्च संस्कार भर देता है जबकि लोकप्रिय साहित्य मूल्यहीनता के संस्कार पैदा करता है. जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी समाज पर साहित्य का कोई प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं देता है. न वह गंभीर लेखकों की पूजा करता है न ही वह अपने लोकप्रिय लेखकों को हिकारत से देखता है.
सुरेन्द्र मोहन पाठक तकरीबन साठ साल से लिख रहे हैं और तकरीबन 300 उपन्यास लिखने के बाद भी न उनकी ऊर्जा कम हुई है न ही नए नए आइडियाज़ को लेकर लिखने का उत्साह. एक सवाल के जवाब में उन्होंने बड़ी अच्छी बात कही कि उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश यही है कि जिंदगी के आखिर तक वे लिखते रहें. हर लेखक की यही ख्वाहिश होती है. अब समय आ गया है कि लेखक और लेखक के बीच के इस विभेद से अलग हटकर साहित्य को उसकी सम्पूर्णता में देखा जाए. असल में लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य का हमजाद है. दोनों की विरासत साझी रही है, पाठक साझे रहे हैं और हिंदी में बड़े पाठक वर्ग के निर्माण में उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है.
खुद को नायक मानने के लिए सुरेन्द्र मोहन पाठक को खलनायक के रूप में देखा जाना उचित नहीं है. जिस लेखक की हिंदी में सबसे अधिक व्याप्ति हो वह हमारे खारिज किये जाने से खारिज नहीं हो जाता.
‘कलम-मसि’ यात्रा हो सकता है आने वाले समय में लोकप्रिय लेखन के मूल्यांकन की नई ज़मीन तैयार करे.
-प्रभात रंजन
-प्रभात रंजन