अनिरुद्ध रॉय चौधरी निर्देशित और रितेश शाह लिखित फिल्म 'पिंक'की बड़ी चर्चा है. इस फिल्म के प्रभाव को लेकर, इसके द्वारा उठाये गए सवालों को लेकर लेखिका दिव्या विजयने यह टिप्पणी लिखी है- मॉडरेटर
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एक मौन चीख़ हृदय से हर बार निकलती है जब लड़कियों को परदे पर प्रताड़ित किया जाता है। और प्रताड़ना क्यूँ? क्योंकि वो लड़कियाँ हैं! और लड़की होकर वो कर रही हैं जो 'अच्छी'लड़कियाँ नहीं करतीं। मुझे दुःख होता है हमें इक्कीसवीं सदी में ऐसे फ़िल्मों की आवश्यकता है और इस से भी अधिक पीड़ा इस बाबत कि नतीजा वही ढाक के तीन पात। हम थिएटर तक जाते हैं, संवादों पर तालियाँ बजाते हैं लेकिन बग़ल में बैठी अकेली लड़की को देख मन ही मन अनगिन कल्पनाएँ करते हैं।
अपने आस पास नज़र घुमा देखने पर कितने लोग नज़र आएँगे जो सही अर्थों में 'सेक्सिस्ट'नहीं हैं। सोचने पर कौन सा एक शख़्स आपके दिमाग़ में सबसे पहले कौंधता है जिसने आपके स्त्री होने के कारण कभी जज न किया हो। आपके पिता, भाई, पति, प्रेमी या दोस्त कौन ऐसा है जिसने जीवन में कभी सिर्फ इस वजह से कोई सलाह न दी हो कि आप स्त्री हैं भले ही वो आपकी सुरक्षा के लिए हो या घर की इज़्ज़त के लिए। अकेले रात में कहीं जाते हुए कितनी लड़कियाँ ऐसी हैं जो अपने पीछे आती क़दमों की आहट से चौंक न गयी हों। हम मनुष्य हैं परंतु उस से पहले हम देह हो जाती हैं...स्त्री देह।
बात नयी नहीं है। पुरानी है। दिन-ब-दिन और पुरानी होती जा रही है। जितनी लड़कियाँ आवाज़ उठाते हुए दिखती हैं उस से अधिक लड़कियों की चीख़ दम तोड़ देती हैं। कितनी लड़कियाँ ख़ुद की सुरक्षा के लिए पुलिस चौकी तक जा पाती हैं और कितनी बिना ख़ुद को अपमानित कराए वहाँ से मदद पाती हैं। कितनी प्रताड़नाएँ क़ानून के अंतर्गत आती हैं और कितनी उसके अंतर्गत न आने पर मन पर प्रहार किए जाती हैं।
पिंक'एक ऐसी फ़िल्म है जिस से हर लड़की रिलेट करेगी। और हर पुरुष ख़ुद को परदे पर देख पाएगा। ख़ुद को हद दर्ज़े के लिबरल मानने-दिखाने वाले पुरुष का दिमाग़ भी बची हुई आधी आबादी की बात आते ही संकुचित होने लगता है।
तीन लड़कियाँ जो साथ रहती हैं। मीनल, फ़लक़ और एंड्रिया। वे सिर्फ़ एक दूसरे की दोस्त नहीं हैं। एक दूसरे को 'नर्चर'भी करती हैं। एक दूसरे का ख़्याल रखती हैं। रात नींद खुलने पर एक दूसरे को कम्बल भी ओढ़ाती है, तकिया भी जाँच लेती है।
दोस्त से आगे वे एक दूसरे की साथी हैं। 'कांड'कर आयी हैं मगर हँसना नहीं भूलना चाहतीं। ये दृश्य आँखों में बस जाता है। डरी सहमी तीन लड़कियाँ हँसी 'मिस'कर रही हैं। वो हर हाल में हँसना चाहती हैं और एक दूसरे की कमर के गिर्द बाँहें लपेटे हँसती हुई तीन लड़कियाँ बहुत ख़ूबसूरत दिखती हैं। (आपने देखी हैं ब्रेक अप के बाद, तलाक़ के बाद, गालियाँ सुनने- देने के बाद, किसी को थप्पड़ रसीद कर देने के बाद, सर फोड़ देने के बाद भी हँसती हुई स्त्रियाँ? हाँ उन्हें हँसना चाहिए। क्यों किसी और के लिए अपनी मुस्कुराहट की क़ुरबानी वे दें।)
केस के दौरान लड़कियों को वेश्या सिद्ध करने की क़वायद में राजवीर के स्टेट्मेंट,
("ये हमें हिंट दे रहीं थीं।"
"कैसे?"
"हँस कर और छू कर बात कर रही थीं।")
के जवाब में अमिताभ की आँखें। अहा! उपहास और विडम्बना से भरी वे आँखें दरअसल दुनिया के हर पुरुष की आँखें होनी चाहिए। हम क्यों मान लेते हैं कि हँसती हुई लड़कियाँ सहजता से 'उपलब्ध'होती हैं। हँस हँस कर बात करती हुई लड़कियाँ किसी को आकर्षित करने के लिए अथवा हमबिस्तर होने के लिए नहीं हँस रही होतीं। उन्हें हँसना उतना ही प्रिय है जितना किसी भी दूसरे मनुष्य को। कभी कल्पना की है लड़कियों की हँसी के बग़ैर दुनिया कैसी होगी? (क्या आपने कभी हँसती हुई लड़की देख सोचा है कि यह आसानी से 'लाइन'दे देगी।)
अकेले रहने वाली तीन लड़कियाँ देर रात रॉक शो जातीं हैं 'उस'तरह के कपड़े पहने। लड़कों से घुल मिल कर बात कर लेती हैं। यहाँ तक कि उनके साथ जाकर कमरे में शराब भी पीती हैं और बताइए फिर भी आप मानेंगे वे 'सेक्स'में इंट्रेस्टेड नहीं हैं। क्यों मानेंगे आप? और मानना भी नहीं चाहिए। आख़िरकार लड़कियों को यह सब करने का अधिकार जो नहीं है। यह सब तो लड़कों का जन्मसिद्ध अधिकार है। और उसमें जो सेंध लगाएगा लड़के उसे 'सबक़'सिखाएँगे। यह सबक़ सिखाने वाली प्रवृत्ति भी पुरूषों को जन्म से ही मिली होगी? राजवीर और उसके दोस्त भी 'ट्रेडिशन'फ़ॉलो कर रहे हैं। क्या अलग कर रहे हैं! लड़कियाँ जो उनकी फ़्यूडल मानसिकता को पोषित नहीं करती, उन पर हाथ उठाती हैं , आख़िर उन्हें तो सुधारना ही होगा, नहीं तो क्या समाज गर्त में नहीं चला जाएगा! अपने पौरुष की आत्मश्लाघा से निकल कब वे स्त्रियों को अपने बराबर की ज़मीन पर खड़े देख पाएँगे। कब लड़कियों के 'न'कहने पर उनके अहम को ठेस पहुँचना समाप्त होगा। और कब वे प्रतिशोध की भावना से मुक्त हो सकेंगे।
(क्या आपने कभी किसी स्त्री को उसकी 'जगह'दिखाने का प्रण लिया है?)
एक और दृश्य जो मानस पटल पर लम्बे समय के लिए अंकित होता है। अदालत में लड़कियों को पैसे के बदले देह की फ़रोख़्त करने वाली साबित करतीं पीयूष मिश्रा की दलीलों को जब फ़लक़ रोक नहीं पाती तो चिल्ला देती है। ज़ोर से। एक सन्नाटा पसर जाता है और वो कहती है "हाँ हमने पैसे लिए हैं।"लड़कियों के साथ वक़ील, जज सब स्तब्ध हैं। आप भी स्तब्ध हैं। एक ही बात का इतनी बार दोहराव कि थक कर उसे मान लेने के अतिरिक्त और कोई चुनाव नहीं बचता। परंतु रुकिए, उसका साहस, खंडित हो चुकने पर भी अभी ख़त्म नहीं हुआ है। उसकी यह स्वीकृति पुरुषों के मुँह पर तमाचा है। यही हथियार है पुरुषों के पास स्त्रियों की किसी भी बात के विरुद्ध।अचूक हथियार। जब लड़की समझ न रही हो, अपनी 'औक़ात'से बाहर जा रही हो तो उसे वेश्या साबित कर दो। उसके चरित्र का हनन कर दो। हाँ हैं वो लड़कियाँ वेश्या, हम सब लड़कियाँ हैं। तो फिर! क्या करेंगे आप...हम वेश्याओं के साथ। ज़बरदस्ती करने के अनुमति तो हम फिर भी नहीं देंगे आपको। न किसी सम्बंध में होने के लिए न बिस्तर पर आने के लिए। वेश्या, रंडी, 'होर'इस एक शब्द से पुरुष स्त्री को डरा नहीं सकते। हम सबकी 'न'का मतलब न ही है। सिर्फ़ न।
गालियों को बीप कर देने से उनका प्रभाव कम नहीं होता। राजवीर की भाव भंगिमा, चेहरे की एक एक मांसपेशी लड़कियों को रंडी कहती दिखायी देती है।
इस शब्द की गूँज पार्श्व तक जाती है जब हरियाणवी पुलिस अधिकारी इन्हीं अर्थों में कुछ शब्द प्रयोग करती है। महिलाओं की भूमिका में सत्ता और अधिकार मिलते ही अक्सर हेर फेर हो जाता है। वे क्रूर और कठोर हो जाती हैं। फ़िल्म में पीड़ितों और पुलिस अफ़सर के अतिरिक्त एक स्त्री पात्र और है। दीपक सहगल की पत्नी जो अस्पताल में है और जीवन के आख़िरी पायदान पर है। वह अपने पति और लड़कियों के पक्ष में हैं। परंतु यथार्थ में आम औरतों का रूख 'ऐसी'लड़कियों के प्रति कैसा होता है यह अदृष्ट नहीं है। अपने आस पास की स्त्रियों को जेंडर के आधार पर भेद करती गॉसिप करते हम सबने कहीं न कहीं सुना है। स्त्रियों को ऐसे नाम देना उनकी सेक्सुअल आदतों को रेखांकित करने से अधिक उन पर अंकुश लगाने का साधन है।
(आप में से कितने लोगों ने मन की भड़ास निकालने को यह या इस से मिलते जुलते शब्द इस्तेमाल किए हैं?)
अमिताभ की रौबदार आवाज़ गूँजती है, "मीनल आर यू वर्जिन?"नहीं.....नहीं है वो वर्जिन। और कमाल की बात है उसकी वर्जिनिटी बलात्कार से नहीं गयी। उसने लड़कों की भाँति ख़ुद अपनी इच्छा से सेक्स किया। उन्नीस की उम्र में पहली बार। फिर जब जिस से प्रेम हुआ, उससे सेक्स किया। उसके एक, दो, तीन....दस और न जाने कितने पार्टनर हुए। लेकिन उसकी अनुमति से हुए। उसने जिसे चाहा वे उसके साथी हुए। सहमति से। हज़ार बार जो काम वो अलग अलग लोगों के साथ कर चुकी है, आपके साथ नहीं करना क्योंकि उसका मन नहीं है। क्यों नहीं है? यह पूछने का अधिकार अगर उसने नहीं दिया तो आपको नहीं है। उसने न कह दिया इतना पर्याप्त होना चाहिए। (क्या आपसे कोई पूछने आता है कि आपका मन क्यों है और लगभग हमेशा क्यों रहता है!) स्त्रियों के यौन सम्बन्धों के आधार पर उनके चरित्र को आँकना अनवरत जारी है।
'मीनल का तो समझ आता है।"फ़लक का प्रेमी जो उस से उम्र में कई गुना बड़ा है इस हादसे पर टिप्पणी करता है और फ़लक अपनी दोस्त के लिए स्टैंड लेती है। फ़लक़ का स्टैंड लेना उसकी संवेदनशीलता का परिचायक है। संभवतः उसे अहसास हुआ होगा कि जो पुरुष उसकी दोस्त के सही होते हुए भी उस पर उँगली उठा सकता वह उसके चरित्र को किस तरह आँक सकता है। जिसने प्रेम करते वक़्त सैकड़ों वादे किए होंगे वही प्रेमी हादसे के बाद सबसे पहले पीछा छुड़ा भागता है कि उसकी बेटी इन सबसे दूर रहने पाए। चरित्र को नापने के लिए सदियों से दो पैमाने न जाने क्यों रखे गए हैं।समान आचरण के लिए पुरुष पुरस्कृत होते हैं ( डूड का टैग)और स्त्रियाँ को दंड दिया जाता है। (होर का टैग)। बालकनी से लड़कियों को घूरना, उनके अन्तःवस्त्रों पर नज़र जमाए रहना चरित्रवान होने की निशानी है और अपना घर होते हुए भी दूसरा घर किराए पर ले रहना, देर रात घर लौटना चरित्रहीन होने की निशानी है!
तीसरी लड़की एंड्रिया 'नॉर्थ ईस्ट में कहीं से है।'नॉर्थ ईस्ट में आठ प्रदेश हैं मगर इस से फ़र्क़ क्या पड़ता है। दिल्ली में सबसे ज़्यादा कॉल गर्ल्ज़ वहीं से आती हैं तो वहाँ की हर लड़की को वही समझने की आज़ादी हम ले सकते हैं। और बताइए अकेले अनजान लड़के के साथ टॉयलेट इस्तेमाल करने कोई भली लड़की कैसे जा सकती है। यूँ भी लड़कियों का 'नेचर कॉल'एक वीभत्सता है जिसे लड़कों को साथ ले जाकर पूरा नहीं किया जा सकता। लड़कों को साथ ले जाने का अर्थ है उन्हें सेक्स के लिए आमंत्रित करना। और अगर लड़कियाँ ऐसा न चाहती हों तो उन्हें अपने नाख़ून बढ़ा कर रखने चाहिए कि कम-अज-कम वो उस लड़के का मुँह तो नोच सकें।
अमिताभ के साथ जॉगिंग करती मीनल लोगों के छींटाकशी पर जब ख़ुद को कवर कर लेती है तो अमिताभ उस हुड को हटा देते हैं। पूरी फ़िल्म का सार यहाँ एक दृश्य में सिमट आता है। 'स्लट शेमिंग'से डर कर नहीं, ख़ुद के वजूद को मिटा कर नहीं, खुल कर जीयो।
हम सब यह बातें न जाने कितनी बार कर चुके हैं। लड़कियाँ लगभग हर रोज़ ऐसी ही बातें लिख रही हैं। आवाज़ भी उठा रही हैं। लेकिन सच कहें तो बदलता कुछ नहीं है। न लोगों की मानसिकता ना लड़कियों पर टॉर्चर। आप यह फ़िल्म देखने न जाएँ, जीने जाएँ।कि कुछ अरसे बाद हमें यह सब न देखना पड़े। हमें हँसती हुई, स्त्री होने के उल्लास को महसूस करती औरतें दिखें। भयग्रस्त, आशंकित नहीं माथे पर बग़ैर लकीरों वाली स्त्रियाँ दिखें। हमारी बच्चियों की आँखों में प्रश्न नहीं सुकून रखा मिले। उनके परों पर ख़ून के छींटे नहीं, ओस की बूँदें छितरी मिलें।
अमिताभ नियमों के बहाने से जो व्यंग्य करते हैं, हमारे समाज के लिए उस व्यंग्य की आवश्यकता समाप्त हो जाए। रोती हुई नाज़ुक सी एंड्रिया, मीनल और फ़लक़ को खुद को बेक़ुसूर साबित करने के लिए किसी अमिताभ की ज़रुरत न पड़े। हम मान लें कि वे लड़कियाँ देर रात तक बाहर रहती हैं, छोटे कपड़े पहनती हैं, शराब पीती हैं, सेक्स करती हैं और फिर भी स्लट नहीं हैं। वे 'गर्ल नेक्स्ट डोर'ही हैं।
बक़ौल राजवीर, "ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होता है।"और ऐसे लड़कों के साथ क्या होना चाहिए। जो ग़ुस्सा अक्सर आँसुओं में बह जाता है उस ग़ुस्से को बाज़ुओं में समेट वही करना चाहिए जो मीनल ने किया। जब तक दुनिया न बदले तब तक हर स्त्री को दूसरी स्त्री की ताक़त बन, हाथ थाम एक सुरक्षा चक्र बना लेना चाहिए। एक वृत्त जिसकी मज़बूती किन्हीं भी प्रचलित धारणाओं से न टूटने पाएँ।