'पिंक'फिल्म को लेकर एक अलग दृष्टिकोण से कुछ तार्किक सवाल उठाये हैं अभिनय झाने- मॉडरेटर
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मौज़ूदा धारा से थोड़ा हटकर “पिंक” सिनेमा की आलोचना करना मॉब लिंचिंग का शिकार होने का रिस्क लेने जैसा है, तब भी। वैसे आलोचना न कह कर दृष्टिकोण का अंतर कहना ठीक रहेगा। जैसे ब्राह्मणवाद ने समय की गति को भाँपते हुए विशिष्ट प्रयोजनों से एकाएक मंदिरों के पट “सबके” लिए खोल दिया, कुछ-कुछ उसी तरह से पितृसत्ता खुद ही आगे बढ़कर “नारी की मुक्ति” के द्वार खोल रही है। जब-जब नारी पर हमला होगा, उस हमलावर पुरुष से त्राण दिलाने भी एक अन्य पुरुष ही अवतार लेगा। तीन शहरी, युवा और शिक्षित औरतों पर एक बूढ़े-से-बूढ़ा वक़ील ज्यादा सक्षम है, ज़ाहिर तौर पर वह एक पुरुष है। अगर पेशेवर जानकारी ज़रूरी ही थी, तो बूढ़ी वकील से भी काम चल जाता। बहरहाल, पक्ष भी तुम, प्रतिपक्ष भी तुम।
पेशे और कारोबार के रूप में सीधा खेल तो ठीक है, पर शिकारी जब रूप बदलकर आता है तो समस्या गहरी और गंभीर हो जाती है। एक मिलता-जुलता उदाहरण याद कीजिए “कौन बनेगा करोड़पति” में अमिताभ बच्चन कितने “भद्र और दोस्ताना” तरीके से प्रतिभागियों से और उनके परिवार के सदस्यों से हालचाल लेते थे। “कैसे हैं आप, मैं तो धन्य हो गया आपसे बात करके” नुमा। ऐसे “पारिवारिक” शो और छवि की बहुत ज़रूरत होती है। मगर ऐसा लगता है कि जैसे टाटा नमक ‘देश के नमक’ होने के नाम पर मार्केटिंग करती है और पतंजलि स्वदेशी होने के नाम पर, बहुत कुछ उसी तरह पिंक सिनेमा ने नारीमुक्ति के नाम पर महज़ कारोबार किया है और प्रकारांतर से पितृसत्ता की शक्ति-संरचना को ही रीइन्फोर्स किया है।
एक वह दौर भी आया था जब पितृसत्ता ने बाज़ार ने अपने साझे हितों के चलते औरत को सूडो-स्वतंत्रता देने के नाम पर उसको सस्ते श्रमिक की फौज़ के रूप में खड़ा कर दिया था। कहना न होगा कि बहुत हद तक आज भी यही स्थिति है। “वर्किंग और इंडिपेंडेट लेडी” के नाम पर एक समूचा तबका आसानी से कम सैलरी पर उपलब्ध है। इन बातों के लिहाज़ से यह कहना ही होगा कि चाहे यह फिल्म ऊपर-ऊपर से ज़रूरी सवाल उठाती है और उन सवालों पर बात किए जाने की बहुत ज़रूरत भी है। फिर भी इसका अंडरकरेंट बहुत ही चालाकी और पक्षपात से भरपूर है।
कला के रूप में फिल्मों की रेसिपी जितना यथार्थ होती है, उतनी ही कल्पना भी। यथार्थ की कुरूपता का मेक-अप किसी हद तक सुंदर कल्पना कर सकती है जो एक तरह से भविष्य की आकांक्षा ही होती है। पिंक फिल्म में इस आकांक्षा तक से परहेज़ किया गया है। ऐसा भी हो सकता था कि जब लड़के किसी लड़की को ज़बरन गाड़ी में घसीटते हैं तो वह संघर्ष में जीत जाती। ऐसा भी हो सकता था कि तीन लड़कियों में से कोई खुद ही वक़ील होती। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वक़ील रखना तो दूर, इंटर्न तक नहीं रखा। संघर्ष और विजय को पूरी तरह से मेल प्रोटैगनिस्ट के लिए आरक्षित कर दिया गया।
एक आख़िरी बात। फिल्म का नाम “पिंक” अपनेआप में ही एक ओल्ड-फ़ैशन्ड स्टीरियोटाइप है। पिंक वर्ण नारी का उसी लाइन में प्रतीक है, जिस लाइन में उसका सच्चरित्र होना है, उसकी कोमलता है, उसका त्याग है और उसके व्रत-उपवास हैं। देखने वाली बात यह है कि चाहे नारी कितनी भी “मॉड” हो जाए, वह खुद से कुछ हासिल नहीं करेगी। उसे किसी पुरुष के हाथों कुछ हासिल कराया जाएगा और “आज़ादी” दिलाने के नाम पर उसे फिर से देवी ही बनाएँगे और फिर वहाँ अच्छे-बुरे देवता रमेंगे।