राकेश तिवारीका कहानी संग्रह कुछ समय पहले आया था- मुकुटधारी चूहा. अच्छी कहानियां थीं. उनके लेखन में एक अन्तर्निहित विट है जो पाठकों को बांधता है. यह उनके इस उपन्यास में भी दिखाई देता है. फसक कुमाऊंनी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ गप्प होता है. एक रोचक अंश का आनंद लीजिये और लेखक को शुभकामनाएं दीजिये- मॉडरेटर
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कुकुरीबाघ
शहतूत के पेड़ की एक मोटी और ज़मीन के समानांतर पसरी डाली पर बाबाजी उल्टे लटके थे। पैर टहनी में फंसा रखे थे। सिर नीचे। लुंगी की तरह बंधी धोती उलट कर मुंह तक पहुंच रही थी। कमर से नीचे के नग्न हिस्से को केवल एक लंगोट ढांपे हुए था। वह ढीला लग रहा था। भैरव को उस ओर देखने में संकोच हुआ। उसे डर था कि ज़्यादा कसरतबाज़ी से कोई अश्लील दृश्य न उपस्थित हो जाये। बाबा बीच-बीच में सीधे हो जाते और उसी मोटी डाल पर उकड़ू बैठ जाते। बंदर की तरह। बार-बार मुंडी हिला कर नीचे खड़े भैरव और आठ-दस दूसरे लोगों को घुड़की-सी देने लगते। यह दृश्य देख कर चंदू पांडे भौंचक रह गया।
भैरव के हाथ में केले थे। वह बाबाजी को केले दिखा कर नीचे बुला रहा था। चंदू ने भैरव के कंधे पर धीरे से हाथ रखा, “ये क्या हो रहा है ?”
भैरव ने चंदू की तरफ़ नहीं देखा। केले हवा में लहरा कर बाबाजी की ओर बढ़ाते हुए बताया, “कभी-कभी वानरों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। हनुमानजी के अवतार हैं ना। केले दिखा कर नीचे उतारना पड़ता है।”
चंदू ने फौरन महराज जी की ओर हाथ जोड़ दिये। भैरव ने आवाज़ दी, “आओ महराज जी, केले खा लो...हनुमान जी, ये देखो केले !”
यह दो साल पुरानी बात है। तब से चंदू पांडे शनि और मंगल के दिन प्रायः एक चक्कर आश्रम का ज़रूर लगाता है। सुबह मौक़ा न मिले तो शाम को ही सही। दोनों दिन बूंदी का प्रसाद लेकर जाता है। कभी-कभी केले भी ले जाता है।
मंगलवार का दिन है। आश्रम के भजन-कक्ष में नन्नू बाबा उर्फ़ नन्नू महराज तखत पर विराजमान हैं। उनके खुले केश कंधे पर झूल रहे हैं और पैर हवा में। कुछ भक्तगण फ़र्श पर बिछे कालीन पर पहले से बैठे हैं। बाबा के चरणों की छांव में। दो महिलाएं बाबाजी के पैरों की सुंदरता पर चर्चा कर रही हैं— कितने सफेद और गुदगुदे पैर हैं।
मंगलवार को बाबा सिंदूरी टीका लगाते हैं। भक्तगण आ रहे हैं, बाबा के चरण छूकर स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। चंदू पांडे पिठ्यां[1]लगाए बीच में बैठा है। बूंदी का प्रसाद बाबा के सामने रख चुका है। कुछ भक्त फल, मिठाई और अगरबत्ती लेकर आए हैं। इस मंगलवार भक्तों की संख्या अधिक लग रही है। बाबा तिरछी नज़र से एक-एक भक्त को देखते हैं और भक्त मुदित मन से बाबा के मुखमंडल को। वे चंदू को संबोधित करने के लिए उसकी ओर नज़र घुमाते हैं, “कर्म करने से भाग्य नहीं बदलता। किसी का नहीं बदला।”
बाबा हाथ हिला कर कहते हैं। भक्तों का नई थ्योरी से परिचय हो रहा था। वे सांस रोक कर सुन रहे थे। बाबाजी ने समझाया— सच्चाई तो यह है कि हर मनुष्य भाग्य के अनुसार कर्म करता है। भाग्य में जितना पाना लिखा है, कर्म उतना ही होगा। लाख एड़ियां रगड़ लो। भाग्य में जेल जाना होगा तो मन चोरी-डकैती के लिए ललचायेगा। आदमी ऐसी ग़लती करेगा कि रंगे हाथों पकड़ा जाए। पकड़े जाने पर पुलिस वाले के साथ सुलह-समझौता करने की जगह ऐंठ जाएगा। ‘ठुल्ला-पुल्ला’बोल देगा। क्यों बोलेगा ? क्योंकि भय्या, भाग्य में तो जेल जाना लिखा है।
महराज के सामने बैठे चेले-चपाटे उनके विचार सुन कर नतमस्तक हो गए। सभी भक्त भाग्यवादी थे। अपने खुट्टल भाग्य में धार चढ़वाने के लिए बाबा के द्वार पर आए हुए थे। बाबा सान लगाने वाली साइकिल का पहिया घुमाए जा रहे थे। चिंगारियां निकल रही थीं। धार लग रही थी। चमत्कार। बाबा के प्रवचन ही नहीं, खुद वे भी चमत्कारी बताए जाते हैं। वे चमत्कार दिखाते नहीं, बल्कि जो भी दिखा दें, भक्त उसी को चमत्कार मान लेते हैं। एक दिन बाबा ने जॉनसन बड कान में डाल कर पीला मैल निकाल दिया। पास के गांव से आया एक भक्त देख रहा था। वह चिल्लाया— चमत्कार हो गया। बाबा ने कान में फुलझड़ी जैसी कोई चीज़ डाली और सारा मैल अपने आप फुलझड़ी में चिपक गया। दो साल पहले जब बाबा पेड़ पर लटके थे, तब भी उनकी धोती के अंदर से झांक रहा लंगोट देख कर भक्तों ने उसे चमत्कार कहा था। सुनने वालों की आंखें फटी रह गई थीं— अरे बाप रे। शायद उन्होंने भक्तों को अपने अंदर विद्यमान लंगोटी महराज के दर्शन कराये— अपने गुरू के। हाये, हम न हुए। भक्तनों को भी अफ़सोस था। भैरव सुन रहा था। उसने आकाश की ओर हाथ जोड़ दिये। ईश्वर की बड़ी कृपा। उसने बाबाजी का लंगोट नहीं खिसकने दिया।
बाबा अगर खिड़की से झांक रहे हों तो लोग अनुमान लगाते हैं कि भविष्य में झांक रहे होंगे। वे अंधेरे को देखने लगें तो लोग सन्नाटा खा जाते हैं। अवश्य ही बाबा अतीत में झांक रहे हैं। भक्तों की राय में बाबा त्रिकालदर्शी हैं।
बाबा के प्रवचनों से सब मुग्ध थे। सबसे अधिक प्रभावित लग रहा है चंदू पांडे। बाबा जो कहते हैं उसके समर्थन में गर्दन हिलाता है। महराज ने पांचों खुली उंगलियों के साथ बाएं हाथ से चंदू की तरफ़ संकेत करते हुए कहा— विचार कीजिए कि इनके भाग्य में एक दिन संसद पहुंचना लिखा है।
सबने पलट कर देखा। आज किसके भाग्य में धार लग गई ?चंदू भी पलट कर पीछे देखने लगा। बाबा मुस्कुराए, भक्तों की ओर देखा और प्रश्न पर ज़ोर दिया— संसद पहुंचना लिखा है तो क्या होगा ? सारे भक्त चूतियों की तरह एक-दूसरे को देखने लगे। कौन जाने क्या हो जाए !बाबाजी ने रहस्य खोलने के अंदाज में कहा— होगा यह कि हमारे चंदू जी का मन अभी से ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ने को लालायित हो जाएगा। छटपटाने लगेगा। अगर चोरी-चमाटी करते होंगे तो उससे विरक्ति हो जाएगी— नहीं भय्या, बहुत हुआ। अब तो चुनाव लड़ूंगा।
जो भक्त चंदू को जानते थे और जिन्हें उससे ईर्ष्या हो रही थी, वे ‘चोरो-चमाटी’सुन कर सिर झुकाए फी-फी करने लगे। चंदू ने उनकी हंसी पर ध्यान न देकर उनकी उपेक्षा का प्रदर्शन किया, “ऐसे ही केवल उदाहरण दे रहे हैं महराज, या मेरे भाग्य में लिखा है ?”
“भाग्य में जो लिखा है उसे तुम भी पढ़ सकते हो। अपने अंदर झांक कर देखो।”— इतना कह कर महराज गुनगुनाने लगे— मन की आंखें खोल बाबा, मन की आंखें खोल...।
चंदू पांडे असमंजस में पड़ गया। उनसे आंखें मूंद लीं और मन की आंखें खोलने की कोशिश करने लगा। उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। लगा, कहीं उसके मन की आंखें फूट तो नहीं गईं ? कौन जाने मन साला पैदाइशी नेत्रहीन हो। उसने कुछ पल शांत रहने के बाद यूं ही कह दिया, “थोड़ा-थोड़ा दिख रहा है महराज। मैं...मैं बनना चाहता हूं। लेकिन एक दुविधा है।”
बाबा ने उसकी ओर देखा। मानो, पूछ रहे हों, क्या दुविधा है। चंदू ने बताया— अंदर तो मल्ला रामखेत वाले घमासान मचाए हुए हैं। वो बनने देंगे ?खुद हमारे भाई साब नहीं बनने देंगे। मन के अंदर दिख रहा है, भाई साब हाथ में जूता लिये दौड़ा रहे हैं।
सब लोग ठहाका मार कर हंसे। बाबा ने बड़ी मुश्किल से हंसी दबाई। चंदू को उसका बड़ा भाई बचपन से ही जूता हाथ में लिये दौड़ाता रहा। लोग कहते हैं कि चंदुआ पैदाइशी लुच्चा है। जूता खाये बिना मानने वालों में से नहीं है। कुछ लोग उसके भाई के लिए भी उच्च विचार रखते थे। उनकी राय में, भाई अपने समय में बड़ा हरामी और गुरुघंटाल रहा। तीन भाइयों के गिरोह का सरगना वही था। उसी ने तीनों को गांव और क़स्बे से लेकर जंगल तक छापामारी की ट्रेनिंग दी थी। बड़े को जब से लकवा मार गया, भाइयों का गिरोह टूट गया और सबने अगल-अलग धंधे पकड़ लिए।
“आप तो जानते हैं महराज, दूसरों को चैन से दो रोटी खाते कोई नहीं देख सकता।”चंदू ने भक्तों पर सरसरी निगाह डालते हुए व्यंग्य किया, “यहीं देख लीजिए, कितने लोगों के सांप लोट रहे हैं।”
“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गए कारवां बनता गया,”कह कर बाबा ने फिर आंखें मूंद लीं और गुनगुनाने लगे, “जोदी तोर डक शुने केऊ ना आसे, तबे एकला चलो रे...।”
बाबा कभी पश्चिम बंगाल में रहे। काफी समय असम में रहने के अलावा कुछ समय उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में बिताया। यह बाबा खुद बताते हैं। पर हल्द्वानी के एक उभरते कथावाचक का कहना था कि नन्नू बाबा कभी उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरी करते थे। किसी सहकर्मी की पत्नी से अवैध संबंध बनाने और उसके पति की हत्या करने के बाद पकड़े जाने की नौबत आ गई। वे पश्चिम बंगाल भाग गए और साधु हो गए। पंद्रह साल देशभर में भटकने के बाद कलाज पहुंच गए।
पता नहीं सच क्या था। पर बाबा के चेहरे पर लिखी इबारत तो कहती थी कि यह सब झूठ है। हां, इसमें दो राय नहीं कि उन्हें बांग्ला ही नहीं, कई भाषाओं, कई प्रांतों की लोकधुनों और साहित्य की मोटी-मोटी जानकारी थी। चंदू को केवल ‘एकला चलो रे’समझ में आया था। नासमझों के लिए सारा अर्थ इसी में छुपा था। नन्नू महराज ने कुछ पंक्तियां गाने के बाद फैसला सुनाने के अंदाज़ में कहा— जहां चाह, वहां राह।
“राह बनेगी ?”
“मैं तो संसद तक की यात्रा देख रहा हूं। ”
चंदू पांडे चील की तरह उड़ान भर रहा था। मन क्रीक-क्रीक करता था। आकाश की ऊंचाई से गांव वाले चूज़े लग रहे थे। इंकुबेटर से थोक में निकाले गए चूज़े। बिना मुर्ग़ी के। चील के पंखों की छांव में पलने के लिए अभिशप्त नन्हें-नन्हें चूज़े।
वह उड़ रहा था। एक बार पंख फटकारता और देर तक हवा में उतराता रहता। शाबाश रे क़िस्मत। तेरा भी जवाब नहीं। कब किस करवट बैठ जाए। उसने अपना कंधा थपथपाते हुए इस तरह कहा जैसे क़िस्मत आदमी के कंधे पर बैठी रहती हो।
वह हवा के साथ कदमताल करता हुआ घर पहुंचा। सीधा आंगन में लैंड करने के बाद स्लो मोशन में घर के अंदर प्रवेश किया। पत्नी बगीचे में गोबर की खाद डालने के बाद नीली धारीदार दरी में लेटी खर्रांटे ले रही थी। मुंह खुला था। चारखाने की सूती साड़ी पिंडलियों तक पहुंची थी। एड़ियों में मोटी दरारें थीं और उनमें गोबर फंसा था। घर में गोबर की दुर्गंध फैली हुई थी। मक्खियां गुच्छा-सा बनाये पैरों में जहां तहां चिपकी थीं। चंदू ने थोड़ा नाक सिकोड़ी और फिल्मी अंदाज़ में बोला— अब तुझे आराम ही आराम है डार्लिंग।
पत्नी हड़बड़ा कर उठी, “इस घर में और आराम ?ऊपर पहुंचाने की ठान ली क्या ?”
“मेरी समझ में नहीं आता, तेरी ये ज़बान काकू[2]जैसी टर्री क्यों है ?”
“तुम्हारे मुंह में तो मधुमक्खी का छत्ता लगा है। कहो, शहद में सान कर कौन-सा समाचार लाए हो ?”
“अब तुझे पैर पर पैर चढ़ा कर बैठना है,ठसक से। एक इशारा, सारा जहां तुम्हारा।”
“शराब पी रखी है या अत्तर ?”
चंदू पांडे उखड़ गया,“चल साली औरत बुद्धि...तू दूर की सोच ही नहीं सकती। औरत माने, छोटी सोच। अरे मूरख,रीढ़ में अकड़ लाने की पिरेक्टिस कर अब। ऐसे लुर-लुर, लुर-लुर चलती है लूरी कुतिया की तरह। बदल इस आदत को। नन्नू महराज ने कह दिया है, इस बार ग्राम प्रधान और फिर देखते ही देखते एम्पी। एम्पी का मतलब जानती है ?”
चंदू की घरवाली ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। असभ्य और बदज़बान तो वह पहले भी था, लेकिन ऐसी बहकी-बहकी बातें नहीं करता था। उसे लगा वह दिमाग़ सटका देने वाले किसी नशे की गिरफ़्त में है।
“एम्पी मतलब, जिसकी कार की मुंडी में लाल बत्ती झमझम करती है,”उसने लाल बत्ती के लिए एक हाथ को दूसरे हाथ की हथेली पर लट्टू की तरह दाएं-बाएं घुमा कर पत्नी को समझाया, “दिल्ली में जो संसद भवन है ना, उसमें बैठता है एम्मी। हमारे यहां के कटोरे जैसे मुंह वाले ऐरे-ग़ैरे नेता वहां तक नहीं पहुंच सकते। बड़े-बड़े थाल बराबर मुंह होते हैं उनके। सबसे ओजस्वी देश का प्रधानमंत्री भी वहीं बैठता है। समझी ?”
वह सूती धोती का छोर मुंह में लेकर हंसने लगी, “तुम्हारा मुंह तो गिलास जैसा है— नीचे से पतला, ऊपर से मोटा। तुम्हें कैसे ले जाएंगे वहां ?”
चंदू ने माथे पर हाथ मारा, “धत् तेरे की, छोटी सोच। दिल्ली में मेरे साथ ऐसे ही रहेगी अपनी उल्टी बुद्धि और सीधे पल्ले की धोती पहन कर ?ऊपर से हंसती है। इसी तरह हंसेगी दिल्ली में ?”
चंदू पांडे की घरवाली को नन्नू बाबा पर बड़ा भरोसा था। सोचने लगी कि बाबाजी तो ऐसा अल्ल-बल्ल बोल नहीं सकते। ज़रूर इन्हीं ने कोई नशा किया है। मैं मान नहीं सकती। उसने चंदू से मुंह दिखाने को कहा।
“तू सोच रही होगी— ये मुंह और मसूर की दाल ?”
“नहीं, मैं मुंह सूंघना चाहती हूं।”
उसने जेब से सेल फोन निकाला और गुस्से से पत्नी के हाथ पर धर दिया— ये ले, पकड़। लगा बाबाजी को। खुद पूछ ले।...और ले, सूंघ मेरा मुंह। कभी दिन-दहाड़े दारू पी मैंने ? आंख देख मेरी, चढ़ी हैं ?
चंदू की घरवाली ने पति की आंखों में झांका। चंदू आंखें तान कर खड़ा हो गया, “ले देख।”
उसकी धतूरे के बीज जैसी आंखें पैदाइशी झूठी लगती थीं। लेकिन आज उनमें सच्चाई तैर रही थी। मानो कुकुरीबाघ ने कुत्ते की आंख लगा ली हो। वह असमंजस में पड़ गई। उसे लगा, कहीं उसे गोबर की गैस तो नहीं चढ़ गई। उसने नशे की हालत में चंदू पर इस्तेमाल किया जाने वाला ‘टंग ट्विस्टर’अपने ऊपर आजमाया— कुछ ऊंट ऊंचा कुछ पूंछ ऊंची कुछ ऊंची पूंछ ऊंट की।
सब ठीक तो है। ज़बान सरपट चल रही है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि खुशी में पति की आंखों में डुबकी लगा दे या अपनी रीढ़ सीधी करे। अंततः उसने रीढ़ सीधी करने का फैसला किया और मरोड़ी की तरह ऐंठ गई। मानो, एम्पियाणी[3]बन गई हो।
तेज प्रताप ने यह दृश्य नहीं देखा। वरना अपने प्रिय तकिया-कलाम का इस्तेमाल करते हुए कहता— साला चुग़द चूतिया चंदू पांडे...और उससे भी घनघोर चूतिया घरवाली।