हम जानकी पुल वाले अक्सर देर लेट हो जाते हैं. मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहायका जन्मदिन कल था यह लेख आज लगा रहे है. मेरी प्रिय लेखिकाओं में एक कविताने लिखा है. आजादी के बाद हिंदी कविता को जितना बड़ा मुहावरा रघवीर सहाय ने दिया शायद किसी कवि ने नहीं दिया. यह मेरा अपना मत है. कविता जी के विचारों को पढ़िए- प्रभात रंजन
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हालांकि रघुबीर सहाय की कवितायें आम आदमी के मन और मनोभाव की कवितायें हैं, लेकिन इन कविताओं की पहचान राजनैतिक कविताओं के रूप में ज्यादा है तो इसलिए कि वे एक आम आदमी की नजर से जिन्दगी और कविता दोनों को देखते हैं.इसमें मध्यमवर्गीय समाज की बेचैनियां अन्तर्निहित हैं.. उसके दुःख, उसकी ऊब, उसकी बेचैनियाँ अन्तर्निहित हैं और इसके साथ उसका राजनैतिक क्षोभ भी.
प्रयोगवादी और नई कविता के कवियों ने भाषा और कथ्य के स्तर पर छायावाद के मायावी स्वरुप को जिस तरह से भेदने की कोशिश की और उस के विरुद्ध जिस तरह वे साधारण मानव को काव्य की दुनिया में खींचकर ले आयें और उन्होंने जिस तरह असाधारण को साधारण किय और साधारण को असाधारण, रघुबीर सहाय उस धारा के मुख्य कवि हैं. जैसे ही हम समकालीन कविता की दुनिया में पैर रखते हैं, रघुबीर सहाय को वहां उपलब्ध पाते हैं. वे मध्यमवर्गीय मनुष्य और उसके जीवन की स्थितियों को वर्तमान कविता का प्रप्रुख हिस्सा बनाते हैं, और इस तरह इतिहास का हिस्सा भी- ’अपनी मूर्ति बनता और ढहाता हूँ/ और आप कहते हैं, कविता है?’ या फिर ये कहते हुए- ‘वह क्य़ा है जो इस जूते में गड़ता है/ यह कील कहाँ से रोज निकल आता है/ इस दुःख को क्यों रोज समझना पड़ता है?’
और सिर्फ इतना ही नहीं आधी आबादी यानी स्त्रियों को भी मानवी समझते हुए वे उन के जीवन और दर्द को भी बिलकुल नए अर्थों और अंदाज में व्यक्त करते हैं, जिसका उदाहरण उनकी ‘पढ़िए गीता,बनिए सीता’...जैसी कविता है, जो तब से अबतक मध्यमवर्गीय घरेलू स्त्री के जीवन का जैसे स्केच बनकर उभरता है, और हर प्रबुद्ध व्यक्ति (तथाकथित और अतथाकथित) के जुबान पर चढकर अपना रंग बिखेरने लगता है.
रघुबीर सहाय अपनी कविताओं में जिन प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते हैं,वे बहुत सहज और आम जिन्दगी से ली गई हैं. वे मुक्तिबोध की तरह एक पूरा सिनेरिओ या फिर दिल दहलाने वाला दृश्य नहीं गढ़ते, हालांकि कहते वे भी वही हैं, या फिर उससे कहीं भी कुछ कमतर नहीं कहते. उदाहरण के तौर पर दोनों की कविताओं की कुछ पंक्तियाँ-
दुनिया जो है उससे बेहतर होनी चाहिये.
इसे साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए
और वह मेहतर मैं हो नहीं सकता’-मुक्तिबोध
कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा, न टूटे तिलस्म सत्ता का,
मेरे अन्दर एक कायर टूटेगा.
मेरे मन एक बार तू टूट,मत झूठमूठ.-रघुबीर सहाय
यहाँ बात यह कत्तई नहीं की मुक्तिबोध अपनी कविताओं से राष्ट्र या फिर लोगों को चेता या जगा नहीं रहे. उन्होंने भी बिलकुल वही किया याकि कर रहे थे, यहाँ यह भी कहना बेहद जरुरी है कि भले ही कथ्य के स्तर पर उनकी कविता मुक्तिबोध की कविताओं के भावबोध के करीब दिखाई पड़े क्योकि मूल में ये दोनों ही कवि अपने समय और समाज की दुरावस्था को लेकर गंभीर रूप से चिंतित और चेताने वाले लेखक हैं, ‘.घोर उजाले में आग खोजना’ और ‘अपनी मूर्ति बनाना ढहाना’ मुक्तिबोध के ‘अभियक्ति के खतरे उठाने’ जैसी ही बात ही तो है कहीं न कहीं, पर वे जिस आकुलता से इसे भिन्न-भिन्न तरीके से बार -बार कहते हैं, इस आवेग के साथ कि जैसे जो कहना था वह छूटा याकि बचा ही रह गया. यह छटपटाहट यह आकुलता उन्हें और उनकी रचना को बेहद प्रामाणिक बनाती है और समकालीन भी. मुक्तिबोध में यह चेतावनी जितनी जटिल और घुड़पेंची हो जाती है. कहें तो कुछ स्तरों पर ऐसी जिसे समझने के लिए बुद्धिजीवी या फिर मनोवैज्ञानिक होने की जरुरत आन पड़े.या फिर आमफहम लोगों को इसे समझने के लिए कुंजी की जरुरत हो, वही रघुबीर सबको समझ में आते हैं और सहज ही समझ में आते हैं.
हालाँकि जनता के दुःख की बात, उसकी बेचैनियों की बात भारतेंदु से लेकर निराला और निराला से होकर नागार्जुन ,मुक्तिबोध, पाश, धूमिल औ श्रीकांत वर्मा तक, मतलब उनसे पहले की पीढ़ी के कवियों से लेकर बाद की पीढ़ी के कवि भी करते रहे थे, अतः निश्चित रूप से रघुबीर सहाय भी इसी चेतना और इसी श्रृंखला के कवि हैं. पर उनके भीतर वह विश्वास या फिर वह यात्रा नहीं थी, जो रघुबीर सहाय अपनी कविताओं की यात्रा में चलते चलते अर्जित करते हैं’ वे कहते हैं और जोर देकर अपनी बात इसीलिए कह पाते हैं क्योंकि वे अपनी उस संचित बेचैनी से लड़ते हैं और उबरते भी, जिसे उन्होंने अपने पूर्वजों जिसमें पाश ,निराला और खुद मुक्तिबोध भी शामिल हैं से प्राप्त किया है, और फिर तब वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं- न टूटे तिलस्म सत्ता का/मेर अन्दर एक कायर टूटेगा’ इस कायर का टूटना किसी सत्ता के तिलस्म के टूटने से बिलकुल भी कम नहीं. कि सत्ता का तिलस्म भी तभी टूटता है जब कुछ कायरों और भीरुओं की कायरता टूटती है, वे इस बात से बाखूबी परिचित हैं. इसीलिए तो ‘घोर उजाले में उनकी आग की तलाश’ भी उसी निस्तब्ध शान्ति और सन्नाटे में रौशनी की तलाश है, जो ऊपर-ऊपर से भले ही रोशन दिख रहा हो, पर दरअसल वह असली रौशनी की छाया या फिर उसकी कब्र.
समझे जाने या फिर आसान भाषा में अपनी बात कहने के इस क्रम में सिर्फ श्रीकांत वर्मा ही बस उनके सन्निकट जाते हुए दीखते हैं. धूमिल आते आते रह जाते हैं तो इसलिए कि अकवियों वाली उनकी अराजकता रघुबीर सहाय की तोड़ने के बजाय बनानेवाली उस आस्था से कहीं न कहीं कमतर पड़ जाती है. मुक्तिबोध की तरह श्रीकांत की भी चेतना रघबीर सहाय के आसपास की ठहरी.पर श्रीकांत अपनी बात कहने के लिए सिर्फ एक आध प्रतीकों को रचते और गढ़ते हैं, और उसी के माध्यम से अपनी पूरी बात संप्रेषित कर जाते हैं. ये प्रतीक भी बड़े जाने पहचाने और पूर्व-परिचित ठहरे. जैसे की-‘मगध’ या फिर ‘कौशल’ सीरिज की इनकी कवितायें. पर रघुबीर सहाय के यहाँ बिम्बों और प्रतीकों की बहुलता है. वे हर बार नए उपमान गढ़ते हैं. और उनकी कविताओं के ये प्रतीक भी बेहद सहज और आम लोगों के जाने पहचाने ठहरे- ‘देखो, वृक्ष को देखो/ वह कुछ कह रहा है/ किताबी होगा वह कवि/ जो कहेगा हाय,पत्ता झर रहा है.
‘हंसो-हंसो जल्दी हंसो सीरिज’ की सभी कविताओं में वे ‘’हंसी जैसी एक जानी पह्चानी दशा या फिर स्वाभाविक वृति को इतने अधिक और इतने नए अर्थ देते हैं कि हम चकित हो उठते हैं उसे देखकर. यहाँ तक कि कुछ सहज सरल नाम भी उनकी कविताओं में आकर जैसे प्रतीक और रूपक हुए जाते हैं- जैसे की ‘रामदास’ या फिर ‘रामलाल’.यह चीजों को बड़ा कर देना है.’ लार्जर देन लाइफ’ कर देना.यहाँ तक कि उनके संग्रहों के नाम भी बिलकुल अलग से दीखते हैं, ये नाम बरबस लोगों को अपनी और खींचते हैं , वो चाहे ‘सीढ़ियों पर धूप’ हो, या फिर’ लोग भूल गए हैं’, याकि ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ या फिर’ हंसो, हंसो जल्दी हंसो.’ रघुबीर जी की कविताओं पर बात करते हुए जो सबसे बड़ी दिक्कत होती अहि वो ये कि उनकी कविताओं में से चमकदार पंक्तियों को तलाशना बहुत कठिन है, वे एकाध चमकदार और चौकाऊँ पंक्तियों के कवि है भी नहीं.वे पूरी कविता के कवि हैं. उनकी पूरी कविता आपस में जुडी होती है, कड़ियों की तरह एक दुसरे से बंधी हुई. वे पूरी कविता के अर्थात सम्पूर्णता के ककहरे, जिन्हें कांट छांटकर पेश किया जाना थोडा कठिन है.
जिस तरह रघुबीर सहाय की कवितायें बने बनाये मूल्यों को ध्वस्त करती है, ठीक उसी तरह उनकी कहानियां भी. हालाकि उनकी ख्याति बतौर कवि ज्यादा है, कहानीकार बहुत कम. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि उनकी कविताओं में उनका वह सजग पत्रकार ज्यादा दीखता है. और यहाँ वे एक पत्रकार के नाईं ही सामाजिक सरोकारों को अपनी कविता का विषय चुनते हैं. व्यवस्था-विरोध की बातें बेधड़क लिखते हैं – ‘हो सकता है उन कवियों में मेरा सम्मान न हो/ जिनके व्याख्यानों से साम्राज्ञी सहमत हैं/ घूर पर फुदकते सम्पादक गदगद हैं.’ यह जानकारी यहाँ बहुत महत्व रखती है कि प्रतीक के बाद रघुबीर जी लम्बे अरसे तक’ दिनमान’ पत्रिका के सम्पादक रहें, पर ‘दिनमान’ से अलग होने के बाद उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारिता की राह को ही अपने लिए चुना...हां यह बात भी दीगर है कि जो कवि पत्रकारीता की भाषा में कविताएं रचता है, वह बतौर पत्रकार पत्रकारिता में कविताई करता समझ में आता है. इसके लिए भी उनके सहज तर्क हैं-‘ अलग-अलग डिब्बों में मेरी पीडाएं बंद मत कीजिये/ जिन्हें एक में मिलाकर मैंने की थी रचनाएँ.’ और ये तर्क भी बेबजह नहीं...क्योंकि यूं भी जब सबकुछ गड़बड़ ही है फिर कविता याकि रचना से ही सहज और परंपरागत तरीके से होने का अनुरोध क्यों?
इसीलिए जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं मसलन ‘ सूरज को देर तक डूबते हुए देखने, एक छोटी सी सरल कविता पढ़कर खुश हो लेने, किसी नन्हीं सी बच्ची के किलककर कंधे चढ़ आने पर ख़ुशी से उभ-चुभ हो लेनेवाला ये कवि जटिल होते वक़्त और उसकी उन जटिलतम संवेदनाओं को अपनी नई भाषा और नई मुहावरेदारी में गढने और रचने के क्रम में अपनी सरलता को टाक पर रखते हुए एक नई जटिलतम प्राविधि चुन लेता है. वह एक चीज को दूसरे में मिलाता है, दूसरी को तीसरी में. शर्त इतनी कि फिर भी उसे जो कहना है वो ज्यादा बेहतर ढंग से संप्रेष्य हो, सहजता उसकी इस क्रम में कहीं बीती हुई बात न हो जाए.
दूसरी सबसे गंभीर जिद ठहरी न्याय, समता, सामाजिकता, सरोकार और मानवीय गरिमा जैसे शब्दों को शब्द भर न रहने देकर हमारी सामाजिक संरचना का हिस्सा बनाने की. इसी खातिर रघुबीर अपने समय में खुद को बहुत गहरे रोपते हैं,अपनी भाषा और परम्परा को आखिरी-आखिरी बूँद तक निचोड़कर उसे अपने मन का नया अर्थ देते हैं. और इन सब प्रयासों में खुद को हिंदी आधुनिक कविता पारम्पर से कुछ इस तरह जोड़ लेते हैं कि न सिर्फ इस आधुनिक परंपरा का परिचय उनके बगैर असंभव है, बल्कि राजनैतिक और मध्यमवर्गीय कविताओं की परंपरा भी रघुबीर सहाय के बगैर आधी-अधूरी हो जायेगी.