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भूपेंद्र अबोध फैलाना तो खूब जानते थे समेटना नहीं

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भूपेंद्र अबोधमेरे लिए एक मिथकीय पुरुष थे. मनोहर श्याम जोशी सबसे अधिक किस्से उनके ही सुनाते थे. जो सबसे बड़ा किस्सा था वह ‘कजरी’ फिल्म बनाने का था. पटना की एक तवायफ की संभ्रांत स्त्री बन जाने की एक कहानी के ऊपर ‘कजरी’ नामक फिल्म बनाने के लिए उन्होंने उस ज़माने में कई लाख अडवांस देकर रेखा को साइन किया था जब नायिका प्रधान फिल्मों का दौर शुरू भी नहीं हुआ था. लेखक के रूप में उन्होंने मनोहर श्याम जोशी को साइन किया था. बहरहाल, वह फिल्म कभी नहीं बनी. जोशी जी ने बाद में वह कहानी कल्पना लाजमी को सुनाई. कल्पना ने एक लाख अडवांस देकर फिल्म के लिए हाँ कर दी. लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी. जोशी जी के मरने के बाद कजरी के ऊपर अबोध जी उपन्यास लिख रहे थे. वैसे उसका एक ड्राफ्ट मेरे पास भी पड़ा हुआ था. भगवती आंटी(मनोहर श्याम जोशी की पत्नी) ने मुझे भी पूरा करने के लिए दिया था.

बहरहाल, उनसे पहली मुलाकात 1996 में हुई थी जोशी जी तब ज़ूम कम्युनिकेशन नामक एक प्रोडक्शन हाउस के लिए जोशी जी ने उनको सीरियल लिखने के लिए बुलाया था. उन्होंने ‘सीएम दरबार’ नामक एक धारावाहिक का आइडिया सुनाया, प्रोड्यूसर को पसंद आया और उन्होंने उसके ऊपर काम करना शुरू कर दिया. लालू यादव भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरने लगे थे. वह सीरियल मूल रूप से उन्हीं के किस्सों को लेकर बनने वाली थी. बहरहाल, राजनीतिक विषयों पर टीवी धारावाहिक अक्सर बन नहीं पाते हैं. वही हश्र उसका भी हुआ. अबोध जी गायब हो गए.

अबोध जी के जोशी जी के यहाँ आने और गायब हो जाने के भी कई मजेदार किस्से हैं. वे जोशी जी के सबसे प्रिय थे. कल जब मैंने भगवती जोशी आंटी को अबोध जी के न रहने का समाचार सुनाया तो वह रोने लगी. जोशी जी का पूरा परिवार उनसे जुड़ा हुआ था. लेकिन मैंने अबोध जी के गायब हो जाने का किस्सा सुना रहा था. जोशी जी की एक आदत थी कि वे अचानक बहुत गुस्से में आ जाते थे, खूब भला-बुरा कहते थे थे और थोड़ी देर बाद प्यार से भी बात करने लगते थे. ऐसे ही किसी दिन वे एक बार अबोध जी के ऊपर मेरे सामने ही बरसने लगे. जब जोशी जी का गुस्सा शांत हुआ तो अबोध जी बोले, जरा नीचे से चाय पीकर आता हूँ. उसके बाद वे दो साल बाद लौटे. प्रसंगवश, जोशी जी के घर के सामने की सड़क पर एक चाय का थड़ा था जहाँ मैं जोशी जी के टाइपिस्ट सहायक शम्भुदत्त सती और जब अबोध जी होते थे तो वे चाय पीने जाते थे. जोशी जी के घर में कोई होता नहीं था. आंटी एलएसआर कॉलेज में पढ़ाने चली जाती थी. बहरहाल, उस दिन जब अबोध जी चाय पीने नीचे गए तो दो साल बाद लौटे. जोशी जी बताते थे कि पहले भी वे कई बार चाय पीने या खाना खाने या सिगरेट पीने के लिए नीचे जाते थे और बरसों में लौटकर आते थे.

बहरहाल, अब मैं कोई ऐसी बात लिखना चाहता हूँ जो मुझे लिखना नहीं चाहिए क्योंकि जोशी जी मेरे गुरु थे लेकिन लगता है अबोध जी के मिथकीय व्यक्तित्व को समझाने के लिए लिखना चाहिए. असल में जोशी जी ने अबोध जी के अनेक आइडिया को विस्तार दिया. जैसे, जोशी जी का ‘नेताजी कहिन’ स्तम्भ, जो बाद में 'कक्काजी कहिन'नामक धारावाहिक के रूप में सामने आया. साप्ताहिक हिन्दुस्तान में वह स्तम्भ भी काफी लोकप्रिय हुआ था. किसी ने कभी सोचा कि बिहारी भाषा की ऐसी पैरोडी बनाना जोशी जी ने अचानक कैसे शुरू कर दिया. उनके पीछे अबोध जी का आइडिया या रिसर्च हो सकता था. इसी तरह ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’ का आइडिया में भी बहुत कुछ अबोध जी का ही था. मैं यह नहीं कह रहा हूँ अबोध जी का आइडिया जोशी जी चुरा लेते थे. अबोध जी के पास आइडिया जबरदस्त होते थे, जोशी जी अपने लेखन से उन आइडियाज को अमर कर देते थे.

अबोध जी जोशी का बहुत सम्मान करते थे. उनके मरने के बाद उन्होंने जशी जी के ऊपर एक किताब भी लिखी थी 'सागर थे आप' 

प्रसंगवश, मनोहर कहानियां वाले मित्र प्रकाशन ने 90 के दशक के आखरी वर्षों में एक पत्रिका निकाली थी, जो मनोहर कहानियां की ही तरह रहस्य-रोमांच की कथाओं को लेकर थी. उसी में मनोहर श्याम जोशी ने भोवाल सन्यासी की रोमांचक कथा धारावाहिक रूप से लिखा था, जो जोशी जी के मरने के बाद ‘कौन हूँ मैं’ नाम से उपन्यास रूप में प्रकाशित हुआ.

अबोध जी को जितना मैं समझ पाया वे बहुत कुछ करना चाहते थे लेकिन व्यवस्थित नहीं थे. इसीलिए फैलाया तो बहुत लेकिन समेटना नहीं जानते थे. उनका अधूरा उपन्यास ‘कजरी’ आज भी मेरे पास पड़ा हुआ है. सोचता हूँ उनकी स्मृति में उसको पूरा ही कर दूँ.

आप बहुत याद आयेंगे अबोध जी. आपके किस्से, जिन्हें मैं आँखें फाड़कर सुनता रहता था.

भूपेंद्र अबोध जी की स्मृति को सादर प्रणाम! 
प्रभात रंजन 

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