इस साल के आखिरी महीनों में 'लता सुर गाथा'की काफी चर्चा रही. लता मंगेशकर की संगीत साधना पर उनके साथ लम्बी बातचीत के आधार पर युवा लेखक-कवि यतीन्द्र मिश्रकी यह किताब संगीत की देवी लता मंगेशकर को देखने-समझने का एक अलग परिप्रेक्ष्य देता है. उसी किताब को लेकर मैंने यतीन्द्र मिश्र जी से कुछ सवाल किये जिसके जवाब आज आपके लिए- प्रभात रंजन
=================================
1. यतीन्द्र जी, लता जी पर कई किताबें हैं, उनके जीवन, उनके संगीत को लेकर, आप एक वाक्य में बताइए कि आपकी किताब ‘लता: सुर-गाथा’ क्यों पढ़ी जानी चाहिए?
एक वाक्य में यही कहना चाहूँगा- ‘यह किताब लता जी की लोकप्रिय छवि से अलग, उनके भीतर मौजूद गम्भीर कला-साधिका रूप को उजागर करती है, इसलिए संगीत प्रेमियों को पढ़नी चाहिए।
2. ‘लता: सुर-गाथा’ कैसे शुरु हुई? कितना वक्त लगा?
‘लता: सुर-गाथा’, एक हद तक काफ़ी सालों के प्रयास का नतीजा है। इसकी शुरु होने की कहानी बहुत लम्बी है, जिसे कभी अलग से आपको इत्मीनान से बयान करूँगा। हाँ, इतना भर अवश्य कहूँगा कि यह मेरे लिए एक सपने के सच होने जैसा मामला था। आप बचपन से जिस पार्श्वगायिका को अधीत भाव से सुनकर सम्मोहित होते चले आए हों, उनके संगीत पर कुछ लिखने का अवसर जुटा पाना और वह भी स्वयं उस महान कलाकार की सम्मति और सहयोग से, यह मेरे लिए एक बड़ी बात रही है। मैंने इस किताब पर लता जी से बातचीत की शुरुआत सन् 2010के अन्त के आस-पास की थी, जो 2015ई. के उत्तरार्ध में जाकर पूरी हुई। इसके बाद एक वर्ष किताब को लिखने, सम्पादित करने और दूसरी अन्य तैयारियों में गुजरे। इस तरह लगभग छह-सात वर्षों की मेहनत और धैर्यपूर्वक किताब के हर एक पहलू को परखने के बाद ही अक्टूबर, 2016ई. में यह पुस्तक प्रकाशित हुई।
3. लता जी के बारे में कोई ऐसी बात बताइए जो इस किताब में नहीं है?
वो फिर आपको अलग से बता दूँगा.... (यह एक शरारत भर मानी जाए)
कोई भी बात जो उनके सन्दर्भ में ज़रूरी और प्रासंगिक लगती है, वह एक लेखक और संगीत-रसिक के बतौर मैंने इस क़िताब में शामिल करने का प्रयास किया है। हालाँकि उनकी संगीत-यात्रा इतनी विराट है कि सब कुछ को पूर्णता के स्तर पर समो पाना आसान नहीं है। फिर यह पुस्तक कुछ अतिरिक्त विस्तृत थी, अपने आरम्भिक प्रारूप में, जिसे आलोचक मित्र अनन्त विजय जी की सलाह पर कुछ सम्पादित करके कम पृष्ठों का किया है। मेरे लिए किसी कलाकार की कला-यात्रा से अलग कुछ अतिरिक्त जानने में कभी दिलचस्पी नहीं रही है, इसलिए अलग से लता जी के बारे में कुछ बता पाना मुश्किल होगा।
4. आपकी पहली किताब गिरिजा देवी पर थी अब लता जी पर। संगीत पर, गायक गायिकाओं पर लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
यह एक सुन्दर प्रश्न पूछा है आपने। अपने लेखन के शुरुआती दिनों से ही मुझे लगता था कि हिन्दी में संगीत और कलाओं को लेकर बहुत अधिक सामग्री नहीं है। अधिकतर बातों के लिए आपको अंग्रेजी, मराठी या बांग्ला भाषा की किताबों की ओर देखना पड़ता था। हिन्दी में स्तरीय लेखन तो और भी कम रहा है, जब आप शास्त्रीय संगीत के मामले में यह बात देखते हैं। निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, असद जैदी, शरद दत्त और मृणाल पाण्डे जी के लेखन से ही आपको स्तरीय शास्त्रीय मूल्यांकन हासिल होता है। चाहे वह संगीत का मामला हो या फिर सिनेमा का। कभी-कभी कुछ अन्य लोगों ने भी संगीत पर लिखा है, मगर वह बहुत कम है। यह कहते हुए मैं कोई सहूलियत नहीं ले रहा हूँ कि कम लिखा जा रहा था इसलिए मैं इस ओर आया, बल्कि मुझे लगता है कि इन बड़े लोगों के गम्भीर कामों ने लिखने के लिए प्रेरित किया। उसी दौरान, जब पढ़ना शुरु ही किया था, तो आदरणीया गिरिजा देवी से सम्पर्क बना और उनका हमारे घर आना-जाना शुरु हुआ। उनसे बातचीत का सिलसिला बस यूँ ही शुरु हुआ था, जिसमें आज की प्रसिद्ध लोकगायिका मालिनी अवस्थी जी का योगदान शामिल है। यह सब बातें ‘गिरिजा’ में दर्ज़ भी हैं। पूरी तरह से संगीत में लेखन के प्रति आश्वस्ति लाने का भाव निर्मल वर्मा जी ने मुझ में जगाया। उन्होंने बाक़ायदा अपने पटपड़गंज, दिल्ली वाले घर में मुझे राजी किया कि मैं गिरिजा देवी पर क़िताब, एक कवि की निगाह से लिखूँ। इसमें गगन गिल जी का भी इज़हार मौजूद रहा। बाद में जब पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार हुई, तब बड़े आत्मीय भाव से निर्मल जी ने उसकी भूमिका लिखी, जो आज भी मुझे लगता है कि किताब से ज़्यादा सुन्दर है। इस तरह संगीत में लेखन की शुरुआत हुई और जिसमें मेरा शास्त्रीय संगीत के प्रति प्रेम मददगार रहा।
बाद में ओडिसी की विचारवान नृत्यांगना सोनल मानसिंह जी से मैंने संवाद पर आधारित ‘देवप्रिया’ लिखी, जिसे मित्रों और वरिष्ठों की सराहना मिली। मुझे ‘देवप्रिया’ तक आते हुए यह बात समझ में आ गयी थी कि यदि आप पूरी तैयारी और समर्पित भाव से संगीत पर कुछ वैचारिक ढंग से लिखने का उपक्रम करते हैं, तो वह प्रबुद्ध समाज द्वारा बड़े आदर से लिया जाता है। इसी के चलते फिर मुझे भी मजा आने लगा और इस तरह के लेखन होते गये। जहाँ तक बात ‘लता: सुर-गाथा’ की है, तो उस पर विस्तार से चर्चा मैंने क़िताब में की ही है, मगर इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि सिनेमा संगीत पर भी उतनी ही गम्भीरता से लिखने की चुनौती रहती है, जितना कि शास्त्रीय संगीत पर। ‘हमसफ़र’ (हिन्दी सिनेमा गीतों के सौ वर्षों का जायजा) लिखते हुए यह बात समझ में आयी थी, जिसके विस्तार की तरह ‘लता: सुर-गाथा’ सम्भव हुई।
5. इस क़िताब में लता जी का जीवन कितना है और उनका संगीत कितना है?
इस क़िताब में लता जी के संगीत-यात्रा को परखने और उसे एक विमर्श के भीतर ढालने की कोशिश की गयी है। जाहिर है, ऐसे में उतना ही जीवन सम्मिलित हो सका, जिससे उनके संगीत-जीवन की कोई बात बनती है। हो सकता है ऐसा करने में कुछ बेहद मामूली जानकारियाँ महत्त्व पा गयी हों और कुछ विशेष बातों को इसलिए छोड़ना सही लगा कि वह इस ‘सुर-गाथा’ के लिहाज से बहुत प्रासंगिक नहीं है। मेरे लिए इसे लिखते हुए लता जी की कला और फ़िल्म संगीत की दुनिया में पिछले पचहत्तर वर्षों में उनकी सक्रिय व ज़रूरी उपस्थिति ही विमर्शपरक रहे हैं। उनकी आवाज़, उसका सम्मोहन, उससे बनने वाली एक अप्रतिम सांगीतिक थाती- इन्हीं सब चीज़ों ने ही कुछ कहने और खोजने के लिए प्रेरित किया।
6. सिनेमा संगीत के बारे में आपकी क्या राय है? कहते हैं असली संगीत तो शास्त्रीय ही होता है।
मैं पूरे सम्मान के साथ यह कहना चाहूँगा कि हमारे हिन्दी समाज में अकसर लोकप्रियता को लेकर नाक-भौं सिकोड़ा जाता है। मुझसे अधिकांश रचनाकारों ने लगभग तंज नज़रिए से यह कहा कि ‘आप क्यों लता मंगेशकर पर लिख रहे हैं! फ़िल्म संगीत का भला क्या योगदान गम्भीर कला-दृष्टि के सन्दर्भ में हो सकता है?’ इन सब बातों से मुझे हैरानी होती थी और हँसी भी आती थी कि किसी कला को लेकर कोई कैसे इतना पूर्वाग्रही हो सकता है? आप फ़िल्म संगीत पसन्द न करें और उससे सन्दर्भित कुछ भी लिखा-पढ़ा जाना न स्वीकारें, यह तो ठीक है, मगर उसे एकदम से ख़ारिज करना मुझे बेहद अजीब लगता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही मैंने लोकप्रिय हिन्दी फ़िल्म संगीत के माध्यम को विश्लेषित करने का मन बनाया, जो लता जी के बहाने कुछ नया और अर्थपूर्ण ढूँढने का भी हिमायती रहा है।
व्यक्तिगत स्तर पर मैं फ़िल्म संगीत को एक बड़े और प्रासंगिक कला-अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखता हूँ। मैं उस तरह के विचारों से अपने को अलग पाता हूँ कि शास्त्रीय संगीत ही श्रेष्ठ संगीत है और फ़िल्म संगीत कोई कमतर विधा। मैं ख़ुद एक संगीत प्रेमी रहा हूँ, इसलिए शास्त्रीय संगीत की गरिमा और उसकी विराट उपस्थिति को अच्छी तरह से जानता-समझता हूँ। इसी के साथ उतने ही प्रसन्न मन से फ़िल्म संगीत ही नहीं, बल्कि लोक-संगीत और देशज अभिव्यक्तियों में गायी जाने वाली तमाम क्षेत्रीय बोलियों के गायन-वादन को भी महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। जो लोग शास्त्रीय और फ़िल्म संगीत के बीच तुलना करके श्रेष्ठ और लोकप्रिय का विमर्श रचते हैं, मुझे उनकी इस ग़ैरज़रूरी पेशकश पर हैरत होती है। यह एक गलत अवधारणा है, जिसके पक्ष में खड़े होना मुझे नहीं सुहाता। मेरे लिए उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब द्वारा गायी हुई राग नन्द की बन्दिश जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतनी ही कुछ दूसरे स्तर पर जाकर फ़िल्मों में किया गया उन्हीं का गायन भी महत्त्वपूर्ण लगता है। इसी स्तर पर अनेकों रागों में रची गयी फ़िल्मी धुनें भी उन रागों का भाव-विस्तार ही लगती हैं, कोई स्तरहीन अभिव्यक्ति नहीं।
7. कहते हैं लता जी अपने ऊपर लिखने वालों को बड़ा परेशान करती हैं, आपको भी कोई ऐसा अनुभव है क्या?
मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं रहा है, बल्कि मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि उन्होंने जिस उदारता और प्यार से भरकर मुझसे अपनी संगीत के बारे में बात की है, वह मेरे लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि सरीखा है। बहुत सारी भ्रान्तियों और बेवजह प्रचारित कहानियों से अलग मैंने लता मंगेशकर जी को सादगी से भरी हुई एक मानवीय स्त्री के रूप में ही पाया। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जो मेरे लिए बड़ी सुखद बात है।
8. आपसे अगर लता जी का गाया एक गीत पूछा जाए तो वह कौन सा होगा?
यह सवाल बहुत कठिन है, जवाब देना कष्टप्रद भी। ऐसा करना, गुनाह करने जैसा होगा कि मैं एक ही गीत उनका आपसे साझा करूँ। ऐसा तो लता जी ही नहीं, अन्य किसी दूसरे पार्श्वगायक के सन्दर्भ में करना बेमानी होगा। आप बताएँ कि क्या आप स्वयं किशोर कुमार या आशा भोंसले के किसी एक ही गीत से अपनी दुनिया का रस बरक़रार रख सकते हैं? बाक़ी गीतों का क्या होगा, जो पहले ही गीत को याद करने पर धड़धड़ाते हुए आपके हृदय प्रदेश में पीछे से खिंचते चले आयेंगे। फिर भी आठ-दस गीतों को पेश-ए-ख़िदमत करता हूँ- ‘हाए जिया रोए पिया नाहीं आए’ (मिलन, संगीत: हंसराज बहल), ‘मिला है किसी का झुमका’ (परख, संगीत: सलिल चैधरी), ‘जो मैं जानती बिसरत हैं सैंय्या’ (शबाब, संगीत: नौशाद), ‘मेरा अंतर इक मन्दिर’ (तेरे मेरे सपने, संगीत: एस.डी. बर्मन), ‘सपना बन साजन आए’ (शोखियाँ, संगीत: ज़माल सेन), ‘मेरे सपने में आना रे’ (राजहठ, संगीत: शंकर जयकिशन), ‘हम प्यार में जलने वालों को’ (जेलर, संगीत: मदन मोहन), ‘वो तो चले गये ऐ दिल’ (संगदिल, संगीत: सज्जाद हुसैन), ‘जीवन डोर तुम्हीं संग बाँधी’ (सती सावित्री, संगीत: लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल) और ‘तेरे लिए पलकों की झालर बुनूँ (हरजाई, संगीत: आर. डी. बर्मन)। ये अन्तहीन सूची है प्रभात जी! आपने तो देखा ही है कि ‘सुर-गाथा’ में एक पूरा अध्याय ही ‘तेरे सुर और मेरे गीत’ उनके प्रतिनिधि गीतों के चयन का मैंने बनाया है, जिसमें सैकड़ों दुर्लभ और महान गीत शामिल हैं।
9. लता जी को आपने क़रीब से देखा है, उनकी सफलता का क्या राज़ है?
मेरे जैसे साधारण लेखक से यह सवाल पूछा ही नहीं जाना चाहिए कि वह लता मंगेशकर जैसी महान पार्श्वगायिका की सफलता का राज बता सके। मुझे लगता है कि मैं ही क्या कोई भी इस बारे में अपने ढंग से किसी भी महान कलाकार की सफलता को आँक नहीं सकता। हाँ, यहाँ यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि एक बार मैंने लता जी से यह पूछा था कि ‘क्या आपको यह मालूम था कि आप इतनी बड़ी बन जायेंगी? संगीत का पर्याय होकर घर-घर सरस्वती की तरह पूजी जायेंगी? क्या आपको अपने कॅरियर में कभी ऐसा लगा कि आप महानता की ओर अग्रसर हैं? इस पर लता जी ने बड़े सहज ढंग से हँसते हुए कहा था कि ‘मुझे कभी नहीं लगा और न ही आज लगता है कि मैं वाकई कुछ बन पायी हूँ। मगर मेरे पिताजी को लगता था और उन्होंने अपनी मृत्यु के पहले मेरी माई से यह कहा था कि एक दिन लता बहुत बड़ी सिंगर बनेगी। मैं इसे अपने पिता का आशीर्वाद ही मानती हूँ।’ अब ऐसे में यतीन्द्र मिश्र या प्रभात रंजन जी के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है कि वे लता मंगेशकर की सफलता को मापने का कोई पैमाना तय कर सकें।
10. लता जी से जुड़ा कोई यादगार अनुभव साझा कीजिए।
उनसे जुड़े सारे अनुभव यादगार हैं, सुनहरे हैं और संजोकर रख लेने वाले हैं। आप यकीन नहीं करेंगे कि लता जी ने जब भी कोई उपहार मुझे भेजा है, तो उस पर लगे हुए शुभकामना सन्देश वाले कार्ड में उनके हाथ से लिखे हुए आशीर्वाद को भी मैंने सहेजकर रख लिया कि यह उस अप्रतिम पार्श्वगायिका के हाथ से लिखा हुआ दस्तावेज़ है, जिसका वाहक मैं बन सका हूँ। मैं क्या कह सकता हूँ, सिवाय इस बात के कि उनका आशीष और मुझमें भरोसा जताना शायद अब तक का सबसे बड़ा जीवनानुभव है।
11. ‘लता: सुर गाथा’ अब इतनी लोकप्रिय हो गयी है और लगातार पढ़ने-लिखने वाला समाज और संगीत से जुड़े हुए लोग इससे जुड़ते जा रहे हैं, इस सब पर आपको कैसा लगता है?
मुझे प्रसन्नता है कि ‘लता: सुर-गाथा’ को पाठकों ने हाथों-हाथ लिया है। मैं सभी का शुक्रगुज़ार हूँ। मेरी भी व्यक्तिगत स्तर पर कोशिश रही है कि अपने मित्रों, कला-रसिकों तथा संगीत व सिनेमा अध्येताओं को, जिनके सम्पर्क में रहा हूँ- देर-सबेर उन तक यह पुस्तक भिजवा सकूँ। इनमें से कई लोग तो स्वयं मुझे अपना लेखन भेजते रहे हैं, तो एक जिम्मेदारी के नाते भी यह रिश्ता शब्दों के मार्फ़त निभाना अच्छा लगता है। बहुत सारे नये पाठकों और संगीत रसिकों ने मुझे ई-मेल, फेसबुक मैसेंजर और वाट्सअप सन्देशों के माध्यम से सम्पर्क किया और क़िताब खरीदने के बारे में बताया, तो कईयों ने इसे मँगवाने के लिए जानकारी ली। अधिकांश लोगों ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी सम्मतियाँ दीं, जिनसे हौसला बना रहा कि आपका काम देखा, परखा जा रहा है। बाक़ी, अपनी क़िताब के बारे में अलग से मैं क्या कह सकता हूँ? उसका मूल्यांकन करना आप लोगों का काम है।