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कम्युनिकेटर गांधी का चम्पारण प्रयोग

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महात्मा गाँधी के चंपारण सत्याग्रहके सौ साल होने वाले हैं. जाने माने पत्रकार और राजनीतिक चिन्तक अरविन्द मोहनने चंपारण सत्याग्रह पर एक किताब लिखी है जो भारतीय ज्ञानपीठसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली है. उस किताब का एक विस्तृत अंश पहली बार जानकी पुल पर- मॉडरेटर 
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मेरे लिये यह किताब वर्षोँ से चल रही एक उलझन को सुलझाने का प्रयास है. महात्मा गान्धी 15अप्रैल 1917को चम्पारण आए थे. सात दिन बाद ही जिले के कलक्टर ने अपने वरिष्ठ जनोँ को चिट्ठी लिखी उसमेँ यह उल्लेख सबसे पहले आता है कि आज गान्धी की चर्चा जिले के हर किसी की जुबान पर है. गान्धी ने किसी को अपने आने की सूचना नहीँ दी थी और निपट अकेले आए थे. वे न चम्पारण को जानते थे न उस नील का पौधा देखा था जिसकी खेती से परेशान किसानोँ को राहत देने के लिए वे गए थे. पर डेढ महीने बाद जब जांच आयोग बना तो गान्धी किसानोँ के प्रतिनिधि बनकर न सिर्फ गए बल्कि उन्होने अपने तर्कोँ से सबको चित्त कर दिया और वह सब कुछ हासिल कर लिया जो पाना चाह्ते थे. चम्पारण की चर्चा वे जब करते हैँ बहुत प्रफुल्लित मन से करते हैँ. यह जादू हुआ कैसे और तब कैसे हुआ जन जानकारियाँ लेना-देना, सन्देश का आदान प्रदान, कही आना-जाना बहुत मुश्किल था. कम्युनिकेशन के सारे साधनोँ के आदिम अवस्था मेँ होने पर भी गान्धी कैसे इतने जबरदस्त कम्युनिकेटर साबित हुए. उन्होने कैसे चम्पारन का हर मर्ज जान लिया और कैसे अपमा सन्देश दिया कि सभी लोग सारे भेदभाव भूलक्र उनके पीछे हो लिये और जो एक बार उनके प्रभाव मेँ आया जीवन भर के लिए उनके रंग मेँ रंग गया.
और ऐसी ही उलझन यह रही है कि गान्धी ने तब वहाँ न तो राष्ट्रवाद का नारा बुलन्द किया, न जमीन्दारी के खिलाफ झंडा उठाया, न अगरेजी शासन से लडाई घोषित की, न जुल्मी निलहोँ के खिलाफ कोई तीखी बात की, न अगडोँ के खिलाफ बोला, न पिछडोँ का मजाक उडाया, न दलितोँ का अपमान किया न छुआछूत की लडाई लडी, न औरतोँ के सवाल को ही उठाया न हिन्दू-मुसलमान खेमेबन्दी कराई, न जिले का विकास करने का दावा किया न पर्यावरण बचाने का, न जमीन्दारो-महाजनोँ के रिकार्ड/बही खाते फुंकवाए जो प्राय: हर किसान आन्दोलन की सबसे परिचित तरीका है, और न कहीँ हिंसा होने दी. और तो और उन्होने अखबारोँ को दूर रखा, कांग्रेस को दूर रखा, दूसरे नेताओँ को दूर रखा, जिले मे एक पैसा चन्दा लेने की मनाही कर दी. पर उनको हर वर्ग, हर इलाके, हर समाज का समर्थन मिला और उन्होने वह सब कुछ हासिल कर लिया जिसकी चर्चा पहले की गई है. उन्होने नील की खेती को सदा के लिए विदा करने के साथ विश्वव्यापी अंगरेजी शासन को उखाडने की शुरुआत की, पश्चिमी शैतान सभ्यता का अपना विकल्प देने की शुरुआत की, हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को जमीन पर उतारा और एक इलाके की बार-बार हिंसक हो रही लडाई को शांतिपूर्ण ढंग से राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड दिया. उन्होने दलितोँ की, औरतोँ की स्थिति सुधारने की क्रांतिकारी शुरुआत की, उन्होने ऐसी हिन्दू-मुसलमान एकता बनाई कि फिर चम्पारण मेँ दंगे की खबर नहीँ मिलती.
यह काम गान्धी ने मुख्यत: कम्युनिकेशन के अपने तौर तरीकोँ से किया और इसके दूरगामी प्रभाव हुए-सिर्फ चम्पारण की तात्कालिक बीमारियाँ दूर करना उनका मकसद भी नहीँ था. चम्पारण का सन्देश पूरे मुल्क और दुनिया को गया, सैकडोँ कार्यकर्ताओँ के जीवन भर बना रहा, गान्धी और उनके काम के जरिये आगे और प्रचारित-प्रसारित हुआ. और गोरी चमडी तथा ब्रिटिश हुकुमत का खौफ एक बार चम्पारण से उतरा तो उतरता ही गया. और हम पाते हैँ कि गान्ही महात्मा ने चम्पारण मेँ कसरत करने, डंडा भांजने, पैरेड करने की जगह बडी सावधानी से यही खौफ भगाने का काम किया. और इस क्रम मेँ उन्होने खुद को जान से मारने के प्रयास की खबर एकदम गायब करने से लेकर अपने हर सहयोगी के आने-जाने की सूचना स्वामीभक्त नागरिक की तरह ब्रिटिश हुक्मरानोँ को देने जैसे न जाने कितने प्रयोग किये. उनको पुरानी कम्युनिकेशन प्रणालियोँ की मदद मिली पर सामने अति विकसित और ताकतवर ब्रिटिश इम्पीरियल कम्युनिकेशन प्रणाली थी जिसे गान्धी ने मात दे दी. दूसरी ओर सारी ताकत, सारे संसाधन, सारे चुस्त चौकस लोग और जबरदस्त खुफिया व्यवस्था लिये ब्रिटिश हुक्मरान हर कदम पर गलती करते गए-गान्धी के आने की पहली गलत सूचना से लेकर तिनकठिया प्रथा की समाप्ति पर भ्रामक सूचना देने वाला पोस्टर छपवाने तक. और तो और सारी फौजी और खुफिया तैयारी तथा पुराने प्रशासनिक उदाहरोँ के आधार पर कमिश्नर ने गान्धी को चम्पारण से बाहर करने का जो आदेश दिलवाया उसकी नीचे से लेकर ऊपर तक से आलोचना खुद साम्राज्य के लोगोँ ने ही की. पर गान्धी ने अक्ल और चालाकी या किसी प्रबन्धकीय योजना की जगह अपनी निष्ठा, सच के प्रति जबरदस्त आग्रह और भरोसा, अपनी कुर्बानी देने का जज्बा और निश्चय को ही सबसे ज्यादा मददगार बनाया. मेरे पढने और समझ मेँ तो यही आया है और उसे ही किताब मेँ परोसने की कोशिश की है.
पर तीसेक वर्षोँ से ज्यादा समय से मन मेँ घूम रहे ये सवाल या यह विषय मुझसे सम्भल पाया है, अभी भी भरोसे से नहीँ कह् सकता. इधर जब लगकर पढाई कर रहा था तब साधनोँ और समय का अभाव भी रहा-स्वतंत्र पत्रकारिता कुछ स्वतंत्रता देती है पर ज्यादा मुश्किलेँ ही लाती है खासकर तब जब आप हिन्दी मेँ काम करते होँ. फिर सोचते-सोचते जब मैदान मेँ उतरा तो पता चला कि वह लगभग पूरी पीढी विदा हो चुकी है जिसने अपने पुरखोँ से सीधे गान्धी के समय के किस्से सुने थे. सौ साल की अवधि मेँ चार पीढियाँ आ जाती है. और जब जिले के पुस्तकालयोँ और निजी संग्रहोँ को छानने लगा तब यह एहसास हुआ कि पढने-लिखने और पुस्तक संग्रह का यह हिसाब तो गान्धी के इस आन्दोलन के बाद ही बना है-चम्पारण ही क्या बिहार और देश मेँ राष्ट्रीय आन्दोलन ने गान्धी के चम्पारण प्रयोग के बाद ही. पर यह भी हुआ कि इसी अन्दोलन से कोई राजेन्द्र प्रसाद भी निकले जिन्होने अपनी कई किताबोँ के जरिए इस आन्दोलन के हर पक्ष को सहेजा है. उनकी पहल पर ही प्रसिद्ध इतिहासकार बी. बी. मिश्र ने इस आन्दोलन से जुडे दस्तावेजोँ का भारी-भरकम और अद्भुद संग्रह किया है. गान्धी हेरिटेज जैसा विलक्षण साइट आधुनिक तकनीक और संचार के साहारे बना है पर मन भर देने लायक सामग्री देता है. सम्पूर्ण गान्धी वांगमय भी काफी मददगार संग्रह है.
यह गान्धी के चम्पारण आने का सौंवा साल है. और इतिहास को अध्ययन और लेखन का विषय न मानने वाला भारतीय मानस इस अवसर को भी भूलता लग रहा है. हर बडे काम के महत्व को समझकर उसे रेखांकित करने मेँ चूक करने वाला हमारा बौद्धिक समाज इस अवसर को जिस तरह भुलाने मेँ लगा है वह हमारी इस बीमारी को बताने के साथ एक बडा अवसर गंवाने का भी प्रमाण है. सन्योग से यह साल रूस की क्रांति का सौंवा साल भी है. पर उसकी स्थिति हमसे भी बदतर है क्योंकि अभी हाल तक जिसे आधुनिक इतिहास की सबसे बडी क्रांति और तरह-तरह के नामोँ से जाना जाता था आज उसको याद करने वालोँ को भी उससे शर्म सी आ रही है. रूसी क्रांति की सबसे नायाब उपलब्धि माने जाने वाले सोवियत संघ के पतन के साथ ही जिस तरह से अन्य साम्यवादी शासन विदा हुए, सोवियत संघ बिखरा और इस क्रांति का जनक माने जाने वाला विचार पस्त हुआ वह अलग चर्चा का विषय है, पर इस बडी घटना और सत्तर-अस्सी साल तक चले प्रयोग के महत्व को नकारना मुश्किल है. इस हिसाब से नवम्बर क्रांति को याद करना भी जरूरी है. पर चम्पारण मेँ गान्धी ने जो प्रयोग किये, जिसे बाद मेँ आम तौर पर चम्पारण सत्याग्रह कहा जाता है, उन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि इस प्रयोग से गान्धी के भारत के अभियान की शुरुआत तो हुई ही, इसने उस ब्रिटिश साम्राज्य की जडेँ हिलाने की पहल की जिसमेँ कभी सूर्यास्त न होने की बात बडी शान से कही जाती थी. सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेश ही क्योँ अगले तीसेक वर्षोँ मेँ तो दुनिया से उपनिवेशवाद पूरी तरह विदा हुआ और अब जो मूल्यांकन हो रहे हैँ उनसे यह बात साबित हो रही है कि सिर्फ आजादी की ही नहीँ उपनिवेशवाद पर चोट करने के मामले मेँ हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन सबसे आगे था.
पर हम सब जानते हैँ कि गान्धी बहुत बडी बडी बातेँ और क्रांति जैसा भारी-भरकम शब्द इश्तेमाल किए बिना जो कर रहे थे उसे मात्र राजनैतिक लडाई नहीँ मानते थे- वे इसे सभ्यताओँ की लडाई बताते थे और एक बडी राजनैतिक लडाई के साथ एक देसज विकल्प देने और उसके रचनात्मक कामोँ को भी समान महत्व देते थे. इस क्रम मेँ उन्होने क्या क्या प्रयोग किये, कहाँ से क्या लिया और कब कब क्या बदलाव किया इस बात को गिनवाने का न इस लेखक मेँ सामर्थ्य है न शायद इसकी जरूरत है. और वे सब कुछ खुद से जानते-समझते होँ इसका दावा उन्होने कभी भी नहीँ किया. वे अपने जीवन को सत्य का प्रयोग ही मानते थे. और उन्होने कभी भी अच्छी लग रही चीज को अपनाने से इस चलते कोताही नहीँ की कि फलाँ चीज का स्रोत उनकी धारणा के अनुसार उत्तम नहीँ है. जिस पश्चिम की सभ्यता को वे शैतानी मानते थे उसकी अच्छी बातोँ को न गान्धी ने सिर्फ अपने जीवन और राजनैतिक काम मेँ प्रयोग किया बल्कि प्रचारित करके अमर भी बनाया. ये चीजेँ दक्षिण अफ्रीका के समय से ही लक्षित होने लगी थीँ और भारत समेत सभी जगहोँ पर उसकी चर्चा भी होने लगी थी. जब वे चम्पारण पहुंचकर दनादन चम्त्कार करने लगे तभी बेतिया के एसडीओ लेविस ने लिखा था कि गान्धी पूरब और पश्चिम के अजीबोगरीब मिश्रण हैँ. वे अपने विचारोँ का बडा हिस्सा रस्किन और टालस्टाय, खासकर टालस्टाय से लिया मानते हैँ और इन्हे हिन्दुस्तानी जोगियोँ के आचरण से जोडते हैँ. अगर वे सिर्फ पूरब के विचारोँ से चलते तो एकांत मेँ जाकर ध्यानावस्था मेँ रहते. पश्चिम की शिक्षा ने ही उन्हे सक्रिय सामाजिक सुधारक बनाया है.
अब कोई अंगरेज अधिकारी, जो तब के गान्धी के आन्दोलन के निशाने पर हो इस तरह की बातेँ क्योँ लिखेगा इसके कई अर्थ होंगे. एक सीधा सा अर्थ तो पश्चिम की श्रेष्ठता को रेखांकित करना और ऊपर मानना है, पर यह बात उल्लेख करने लायक है कि पूरे चम्पारण आन्दोलन के समय शायद ही किसी अंगरेज अधिकारी ने गान्धी के बारे मेँ कुछ घटिया बात कही हो- अधिकारी ही क्योँ ज्यादातर निलहोँ की राय भी उनके बारे मेँ अच्छी ही थी पर यह भी हुआ कि सबसे होशियार माने जाने वाले निलहा मैनेजर ने उन्हे जहर देकर मारने की कोशिश भी की. पर गान्धी ने दक्षिण अफ्रीका मेँ जो प्रयोग किए थे और सत्याग्रह से लेकर दूसरी जिन चीजोँ को एक राजनैतिक हथियार बनाया था उसमेँ पश्चिम मेँ तब चले प्रयोगोँ का अनुभव ही आधार बना था पर यह कहना कुछ ज्यादा पश्चिम भक्ति दिखाता है कि गान्धी ने टालस्टाय और रस्किन से ही सब कुछ सीखा था. गान्धी के सबसे अधिक इश्तेमाल हुए हथियार सत्याग्रह को ही पहले पश्चिम के पैसिव रेजिस्टेंस से जोडा गया पर गान्धी ने खुद बहुत विस्तार से बताया है कि यह किस तरह अलग है और इसके लिए किस तरह की नैतिक शक्ति और तैयारी जरूरी है. गान्धी ने अहिंसा को अपनाया और इसे एक राजनैतिक औजार बनाया पर न तो उनकी अहिंसा को अकेले बुद्ध-महावीर से जोडा जा सकता है न पश्चिम के नान-वायलेंस से. अहिंसा को व्यक्तिगत आचरण की चीज की जगह सार्वजनिक आचरण की चीज बनाना, अन्याय दूर करने मेँ हथियार बनाना और प्रशिक्षण से लोगोँ को, खासकर सार्वजनिक काम मेँ आने वाले सत्याग्रहियोँ को अहिंसक बनाने का प्रयोग और आचरण तो गान्धी ने किया. गान्धी उस राजनीति और आर्थिक कार्यव्यापार मेँ नैतिकता को स्थापित करने वाले महापुरुष भी दिखाई देते हैँ जिसे चाणक्य से लेकर अरस्तू और लगभग सारे राजनैतिक दार्शनिक नैतिकता से अलग चीज मानते रहे थे-युद्ध और प्रेम मेँ हर चीज को जायज बताने वाला जुमला इसी सोच से निकला था. गान्धी की करुणा बुद्ध  से आई थी लेकिन सिर्फ बुद्ध वाली न रह गई थी. उन्होने क्या-क्या और कब-कब किस तरह के प्रयोग किये यह गिनवाना हमारा मकसद नहीँ है. पर यह बात जोर से बताना जरूर मकसद है कि हिन्दुस्तान मेँ तीस साल से ज्यादा की अवधि मेँ गान्धी ने जो भी प्रयोग किये चम्पारण उसकी शुरुआत ही नहीँ करता, यह एक बडा और सम्भवत: सबसे महत्वपूर्ण पडाव था.
अब यह गिनती मौजूद है कि गान्धी सेवाग्राम मेँ कितने दिन रहे और साबरमती मेँ कितने दिन, दिल्ली मेँ कितना समय गुजारा और लाहौर मेँ कितना, कलकत्ता कितने दिन रहे और मद्रास मेँ कितने दिन, पर इन जगहोँ पर रहते हुए वे सिर्फ उन्ही जगहोँ का काम करते रहे होँ या उन्होने सारा समय और ध्यान वहीँ की चीजोँ पर लगाया यह कहना गलत होगा. इस लिहाज से चम्पारण यह दावा कर सकता है कि यहाँ गुजारे दस महीने की अवधि का ज्यादातर वक्त और अपना ध्यान उन्होने चम्पारण पर केन्द्रित किया. दक्षिण अफ्रीका के दो ठिकानोँ को छोडकर उन्होनेँ किसी और जगह न तो इतना समय लगाया और ना ही सिर्फ वहीँ के काम पर अपना ध्यान लगाया. चम्पारण रहते हुए गान्धी की चिंता का एक अंश तब बन रहे साबरमती आश्रम पर और फिर अहमदाबाद के मजदूरोँ और खेडा के किसानोँ की समस्याओँ पर था पर गान्धी चम्पारण मेँ रम गए थे. और जैसे ही उन्हे नील की खेती की तिनकठिया प्रणाली के अंत का संकेत मिलने लगा उन्होने भारत मेँ अपने सबसे महत्वपूर्ण प्रयोगोँ की धूम-धडाके से शुरुआत की. वे चम्पारण आने के कुछ समय बाद ही सर्वेंट्स आफ इंडिया सोसाइटी के डा. हरिक़ृष्ण देव को साथ लेकर आए थे और स्वच्छता तथा स्वास्थ्य के मामलोँ मेँ उनकी सेवाएँ लेने लगे थे. और जैसे ही उन्हे चम्पारण की सदियोँ पुरानी नील की खेती की बीमारी जाती लगी उन्होने, बीमारी, महामारी, हाइजिन, शिक्षा, शिल्पकारी, खादी, गौ-सदन बनाने जैसे न जाने कितने ही प्रयोग शुरु किये और बिहार के अपने सारे पुराने सहयोगियोँ को तो लगाया ही बाहर से रचनात्मक काम वाले पन्द्रह कार्यकर्ता ले आए. इस काम मेँ उन्होने कस्तूरबा और देवदास गान्धी को भी लगाया और महादेव देसाई तथा कृपलानी जैसे सहयोगियोँ को भी. और जब वे अहमदाबाद आन्दोलन के क्रम मेँ चम्पारण से निकले तो उन्हे अफसोस रहा कि वे अपने कई प्रयोगोँ को अधूरा छोडकर जा रहे हैँ और कुछ प्रयोग शुरु ही नहीँ कर पाए. पर बीसेक साल बाद जब वे गान्धी सेवा संघ के जलसे मेँ वृन्दावन, चम्पारण आए तो यह देखकर गदगद हो गए कि उनके प्रयोग न सिर्फ फल-फूल रहे हैँ बल्कि कई कदम आगे बढ चुके हैँ.
इतिहास गवाह है कि गान्धी खुद भी चम्पारण के बाद रुके नहीँ थे, बल्कि उनकी रफ्तार तेज हुई थी. और जो प्रयोग उन्होने चम्पारण मेँ किए थे उसे बडे पैमाने पर देश भर मेँ चलाया गया. कांग्रेस की कमान हाथ मेँ आते ही गान्धी ने एक करोड चवन्निया सदस्य बनाने के साथ उतने ही चरखे चलवाने का अभियान भी छेडा. पहले का कोई कांग्रेसी या हमारा कथित राष्ट्रीय नेता यह संख्या सोच भी नहीँ सकता था. शिक्षा का जो अनगढ प्रयोग चम्पारण मेँ शुरु हुआ वह थोडे दिनोँ मेँ ही बुनियादी तालीम आन्दोलन के रूप मेँ देशव्यापी हुआ और चम्पारण समेत पूरे मुल्क मेँ राष्ट्रीय स्कूल और कालेज ही नहीँ विश्वविद्यालय खोलने का आन्दोलन ही खडा हो गया. गान्धी ने छुआछूत, विकेन्द्रित उत्पादन, वितरण और खपत की व्यवस्था शुरु की, सफाई, शराबबन्दी, प्राकृतिक चिकित्सा, उन्नत खेती और पशुपालन से लेकर कुटीर उद्योग जैसे जाने कितने प्रयोग किये जिन्हे गिनवाने और जिनके बुनियादी पक्षोँ की चर्चा करने का सामर्थ्य इस लेखक मेँ नहीँ है. पर यह कहा जा सकता है कि चम्पारण आन्दोलन मेँ लोगोँ और अपने अद्भुद सहयोगियोँ का व्यवहार देखकर गान्धी ने इनमेँ से अधिकांश मामलोँ मेँ पहल कर दी थी जिसमेँ कुछ उसी रूप मेँ आगे बढे तो कई मेँ आगे चलकर बदलाव भी दिखता है. पर यह लेखक अपने सीमित अध्ययन से ही यह दावा कर सकता है कि गान्धी ने दस महीने की छोटी अवधि मेँ चम्पारण से, यहाँ के लोगोँ से और अपने सहयोगियोँ के व्यवहार और आचरण से भी काफी कुछ ऐसा सीखा जिसका असर पूरे जीवन रहा, पूरे आन्दोलन पर रहा. और उनके सहयोगियोँ पर ही नहीँ चम्पारण पर भी गान्धी का ऐसा रंग चढा जो जीवन भर बना रहा और आज का चम्पारण अब राजा जनक. सीता, बाल्मीकि, आल्हा-ऊदल, मौर्य, कौटिल्य, अशोक जैसे प्रतापी लोगोँ के नाम की जगह गान्धी के चम्पारण के नाम से जाना जाता है और इस बात पर गर्व अनुभव करता है.
गान्धी के चम्पारण प्रयोग और रूस की क्रांति की एक और चर्चा यहाँ जरूरी लगती है. गान्धी जब दक्षिण अफ्रीका मेँ बसे हिन्दुस्तानियोँ भर की लडाई लड रहे थे और खुद को आदर्श सत्याग्रही बनाने के साथ अपने परिवार के लोगोँ और साथियोँ को भी इस प्रयोग मेँ शामिल करने की शुरुआत कर रहे थे तब तक उस साम्यवादी विचारधारा ने अपनी सारी वैचारिक तैयारियाँ पूरी कर ली थीँ जिसे आधार बनाकर लेनिन और उनके साथियोँ ने रूसी जार की सत्ता पलट कर सर्वहारा का शासन स्थापित करने का दावा किया. जब से यूरोप के समाज मेँ पूंजीवादी विकास से कुछ बुनियादी असंतुलन और इससे भी ज्यादा, इस असंतुलन के प्रति जागृति आने लगी बराबरी की चाह वाली एक विचारधारा की बहस तेज होती गई और मार्क्स-एंजिल्स ने उसे काफी हद तक फाइनल करके क्रांति करने का रास्ता और उसके लिए जरूरी हथियार बनाने का तरीका बता दिया था. पर जब क्रांति युरोप के किसी विकसित देश की जगह रूस जैसे पिछडे देश मेँ हुई तब इस दर्शन के नायकोँ को यह स्पष्टीकरण ढूंढना पडा कि ऐसा क्योँ हुआ है. यही कसरत फिर करनी पडी जब युरोप के औद्योगिक समाज की जगह चीन के खेतिहर समाज मेँ क्रांति हुई जबकि मार्क्सवाद के अनुसार किसान क्रांति कर ही नहीँ सकते थे. जब युरोप के देशोँ द्वारा दुनिया भर मेँ कायम साम्राज्यवाद की कारगुजारियाँ समझ आने लगीँ तब उसकी अलग व्याख्या की जरूरत लगी. जब पूर्वी युरोप के कम विकसित देशोँ मेँ क्रांति को निर्यातकरने मेँ सफलता मिली और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन वगैरह लाख जतन के बावजूद बाहर रह गए तो उसकी सफाई देनी पडी, जब रूस से दमन-उत्पीडन और मजदूरोँ के ज्यादा शोशण की खबरेँ आने लग़ीँ तो उसे साम्राज्यवादी दुष्प्रचार करार दिया गया, जब पूर्वी युरोप के छात्र लोकतंत्र की मांग लेकर निकले या किसी बौद्धिक ने आजादी की बात उठाई तो उन्हे संशोधनवादी कहा गया और जब सोवियत संघ और चीन मेँ बदलाव शुरु हुए तो उस पर भी सवाल उठे.
अंत मेँ जब सोवियत संघ का पतन हो गया तब ज्यादातर साम्यवादी चुप्पी साध गए और अमेरिकापरस्त जमात विचारधारा से लेकर जाने किन किन चीजोँ के अंत की घोषणा करने लगा. और उसने जो वैश्वीकरण, उदारीकरण और भूमन्डलीकरण के रूप मेँ जो समाधान दुनिया को देना चाहा उसका क्रूर और लुटेरा चेहरा समझने-देखने मेँ किसी को भी मुश्किल नहीँ हुई. यह उपनिवेशवाद और पुराने साम्राज्यवाद से भी ज्यादा शोषक और डरावना लगने लगा. और ज्यादा समय नहीँ हुआ जब कभी सब-प्राइम संकट तो कभी युरोप की एकता और बिखराव जैसे अनेक कदमोँ से इस मुहिम के कदम रुक से गए हैँ. दूसरी ओर युरोप-अमेरिका के ही काफी लोगोँ ने इस मुहिम का चरित्र जानकर विरोध शुरु किया और दुनिया भर के गरीब मुल्कोँ से उठने वाली आवाजोँ के साथ अपनी आवाज मिलाई. भूमंडलीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की मुहिम ने गरीब मुल्कोँ मेँ भी अपने समर्थक बनाए हैँ-खासकर वहाँ के शासक जमात और अमीर वर्ग मेँ. पर विरोध का स्वर स्वत:स्फूर्त है और काफी हद तक सरकारी अभियानोँ के समान ताकतवर होने लगा है.
पर आज यह सिर्फ ताकत और संख्या बल का मामला नहीँ रह गया है-विरोध करने वाले दुनिया की विविधताओँ का, टिकाऊ विकास के माडल का, विकेन्द्रीकरण का, स्थानीय समूहोँ का उनके प्राकृतिक संसाधनोँ पर अधिकार को उसी तरह स्वीकार करने लगे हैँ जो गान्धी के दर्शन और आचरण का केन्द्रीय तत्व है. वे गान्धी को विकल्प के रूप मेँ पेश भी करने लगे हैँ. गान्धी अब तक दुनिया भर मेँ अन्याय का प्रतिरोध करने वाली जमातोँ मेँ ( जैसे इजरायल विरोधी फिलीस्तीनियोँ) , अहिंसक विरोध आन्दोलनोँ मेँ ( जैसे दलाई लामा और तिब्बत की आजादी के आन्दोलन)  पश्चिमी माडल के लोकतंत्र का विकल्प चाहने वालोँ ( जैसे बर्मा की नेता आंग सांग सू की ) , सोवियत माडल के साम्यवाद से बगावत करने वालोँ ( जैसे पोलैंड के श्रमिक नेता लेख वालेसा), हर तरह के अन्याय से लडने वालोँ ( जैसे दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी आन्दोलन ) के लिए प्रेरणा के स्रोत हुआ करते थे, अब वे एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था चाहने वालोँ की आशा के केन्द्र बने हैँ. ऐसे मेँ यह जरूरी है कि गान्धी को, उनके आन्दोलनोँ को उनके प्रयोगोँ को ज्यादा बारीकी से देखा जाए और अपनी जरूरतोँ के लायक समाधान या समाधान तक ले जाने वाली राह तलाशने का काम किया जाए.
जाहिर तौर पर चम्पारण आन्दोलन/सत्याग्रह पर भी नए तरह से देखने की जरूरत है क्योंकि गान्धी ने अपनी काफी ऊर्जा, समय और साधन लगाए थे, काफी सारे सहयोगी तलाशे थे, काफी चीजोँ की शुरुआत की थी. हम भाग्यशाली हैँ कि यहाँ के आन्दोलन की एक बडी पैदाइश देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद भी थे जिन्होने आन्दोलन समाप्त होने के कुछ समय बाद ही इसका व्यौरा लिखना शुरु किया. फिर उन्होने खुद इसका सन्क्षिप्त और अंगरेजी संस्करण तैयार किया. उन्होने अपनी एक बडी सी आत्मकथा लिखी है जिसमेँ चम्पारण सत्याग्रह बडी प्रमुखता से आया है. फिर उन्होने गान्धी से अपने आजीवन सम्बन्धोँ को लेकर हिन्दी और अंगरेजी मेँ एक बहुत अच्छी किताब लिखी लिखी है. उनके प्रयास से ही तब के विलक्षण इतिहासकार बी. बी. मिश्र ने चम्पारण आन्दोलन से सम्बन्धित सरकारी दस्तावेजोँ का संग्रह भी तैयार कर दिया है. गान्धी के आधिकारिक जीवनीकार बी.जी. तेन्दुलकर ने भी बिहार सरकार के न्यौते पर चम्पारण सत्याग्रह का इतिहास लिखा है. बिहार के अपने दोनोँ दिग्गज इतिहासकारोँ कालीकिंकर दत्ता और पी.सी. रायचौधरी ने भी चम्पारण पर अपनी कलम चलाई है. पर यह सब एक ही राग के गाने गाते हैँ. दूसरी कोशिश वामपंथी इतिहासकारोँ ने, जिनमेँ इलाके के स्वतत्रता सेनानी और कांग्रेसी सांसद विभूति मिश्र के पुत्र और अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र शामिल हैँ, की है लेकिन वे इसे न वर्ग संघर्ष के ढांचे मेँ फिट कर पाते हैँ न क्रांति के बने-बनाए माडल मेँ. पर वे जरूर हमेँ इस आन्दोलन को स्थानीय मजबूत लोगोँ से मिले ज्यादा समर्थन और आम गरीब के कम समर्थन की बात सोचने की तरफ मुडने को मजबूर करते हैँ और अंगरेजी राज से मिली स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था से पैदा कुछ बुनियादी खामियोँ का ध्यान दिलाते हैँ. पर किसी एक मारवाडी या दो साहु लोगोँ के आ जाने से आन्दोलन पूंजीपतियोँ या स्थानीय पैसेवाला बनाम विदेशी निलहा वाला नहीँ हो जाता. और ना ही यह आन्दोलन खत्म होने के बाद भी जमीन्दारोँ का रह जाना इस आन्दोलन के प्रभावी न होने का प्रमाण है. किसान आन्दोलन के एक्सपर्ट इसे अपने ढांचे मेँ फिट नहीँ पाते क्योंकि इसमेँ न महाजनी का विरोध था न हिंसक बदलाव की पहल. बल्कि एक नामी इतिहासकार तो इसे किसी भी अर्थ मेँ किसान आन्दोलन न मानकर गान्धी की नौटंकी करार देते हैँ. एकाध कोशिश यह साबित करने की भी हुई कि गान्धी ने राजकुमार शुक्ल वगैरह के जेनुइन किसान आन्दोलन को हडप लिया जो न किसी के गले उतरने वाली बात थी न उसमेँ ऐतिहासिक रूप से कोई दम था. एक गम्भीर प्रयास फ्रांसीसी इतिहासकार जैकस पौचेपदास का है पर वे गान्धी के आन्दोलन और प्रयोगोँ की जगह नील की खेती, उत्पादन, मुनाफा और कई मायनोँ मेँ असफलता पर ही केन्द्रित रहते हैँ. फिर गान्धी के प्रशंसक असंख्य बिहारियोँ और चम्पारणवासियोँ का लेखन है जो अपनी या अन्दोलन मेँ भाग लेने वाले अपने पुरुखोँ की हाजिरी लगवाने-गिनती करवाने भर के लिए किया गया लगता है. यह इतिहास लिखने के नाम से लेकर गान्धी के गुणगान की कविताएँ, गीत, कहानी, नाटक जैसे सभी विधाओँ मेँ है. सो कह सकते हैँ कि आन्दोलन के इतिहास के कुछ पक्ष तो बहु प्रचारित हैँ और उन पर काम करना चीजोँ को दुहराना भर होता. दूसरी ओर रचनात्मक कामोँ की चर्चा है पर काफी कुछ सरकारी ब्यौरे जैसा. गान्धी की सोच क्या थी, तब साथियोँ से, स्थानीय लोगोँ से किस तरह की चर्चा हुई, प्रयोग मेँ बदलाव कैसे और क्योँ हुए जैसे ब्यौरे नदारद से हैँ.
और खुद गान्धी या उनके साथी तो आन्दोलन को क्या बताना चाहते थे कितना महानमानते थे इसकी चर्चा भी मजेदार लगेगी. और सच कहेँ तो यह शुद्ध देसी तरीका है-अपनी और अपने काम की तारीफ करना तो घटिया काम ही माना जाता है. फिर दूसरा पक्ष भले गान्धी की तारीफ करे पर वह अपने काम, इतिहास और फैसलोँ को कैसे गलत ठहरा सकता था. सो किसी अंगरेज लेखक के लिए चम्पारण पर कुछ सार्थक लेखन दिखता भी नहीँ है. पर खुद गान्धी इतना भर लिखते हैँ- सत्याग्रह मेँ चम्पारण के लोगोँ ने खूब शांति रखी. इसका साक्षी मैँ हूँ कि सारे ही नेताओँ ने मन से, वचन से और काया से सम्पूर्ण शांति रखी. यही कारण है कि चम्पारण मेँ सदियोँ पुरानी बुराई छह माह मेँ दूर हो गई.”  और अपने महान गान्धी भक्त और इस आन्दोलन का सारा किस्सा सबसे विस्तार से तथा विश्वसनीय ढंग से सुनानेवाले राजेन्द्र बाबू तो इस पूरे प्रकरण को झगडाभर, चम्पारण का झगडा करार देते हैँ. आचार्य जे. बी. कृपलानी ने अपने जीवन का जो पूरा किस्सा लिखा है उसमेँ चम्पारण का जिक्र कुछ दिलचस्प किस्सोँ और गान्धी के बारे मेँ तब की अपनी राय से ज्यादा का नहीँ है. वे तो यहाँ तक लिखते हैँ कि उन दिनोँ हमारा राष्ट्रवाद ऐसा था कि हमेँ पता ही नहीँ था कि गांव मेँ क्या होता है, गांव का जीवन कैसे चलता है. हमारी दुनिया शहरोँ तक सीमित थी और शिक्षित होने के बावजूद हम अलग थलग जीवन जीते थे. आम आदमी के नाम पर हमारा सम्पर्क सिर्फ अपने नौकर-चाकरोँ से था और फिर भी हम देश को विदेशी शाहन से मुक्त कराने की बात करते थे. उल्लेखनीय है कि चम्पारण आन्दोलन मेँ अंगरेजी हुकुमत भगाने और हिन्दुस्तानी हुकुमत कायम करने वाली बात थी पर खुद गान्धी ने आजादी की बात करने की मनाही कर रखी थी. अनुग्रह नारायण सिन्हा ने संस्मरण लिखा है पर आन्दोलन के मूल्यांकन या किसी ब्रांडिंग की कोशिश नहीँ की है. बाकी किसी को ज्यादा विश्लेषण या लेखन का वक्त नहीँ मिला या ऐसा करना जरूरी नहीँ लगा.
इसके कई कारण होंगे पर सबसे प्रभावी कारण तो शायद गान्धी का अन्दोलन के समय दिया निर्देश ही था कि कोई इस बारे मेँ लिखे-बोले नहीँ, भाषण-सभा न करे और अखबार वालोँ को दूर रखा जाए. गान्धी ने इतना ही नहीँ किया था. उन्होने आन्दोलन को कांग्रेस के नाम से भी दूर रखा था और सन्योग से तब चम्पारण ही नहीँ बिहार मेँ भी कांग्रेस का विधिवत गठन नहीँ हुआ था. बिहार के कांग्रेसी कुछ कुछ और नाम से काम करते थे और अधिवेशन मेँ जाते समय इसका नाम ले लेते थे. लखनऊ अधिवेशन, जिसमेँ राजकुमार शुक्ल भी गए थे और वहीँ उन्होने गान्धी को चम्पारण आने का न्यौता दिया था, मेँ बिहार से कुल कितने प्रतिनिधि गए थे यह भी ठीक हिसाब नहीँ है. सम्भवत: खुफिया विभाग के एक दो लोग भी कांग्रेस का प्रतिनिधि होकर पहुंच गए थे. पर गान्धी ने कांग्रेस का नाम इस चलते रोका था कि ऐसा करने से शासन को आन्दोलन को दबाने का अतिरिक्त बहाना मिल जाएगा और वह इसे किसानोँ की समस्या की जगह राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा मान कर अलग तरह से कार्रवाई कर सकती थी. इस सवाल पर अतिरिक्त सचेत गान्धी ने मदन मोहन मालवीय जी और मजहरुल हक समेत कई सारे बडे नेताओँ को सीधे आन्दोलन मेँ आने से भी रोका. चूंकि उन्होने इसी रणनीति से आन्दोलन का बुनियादी लक्ष्य हासिल किया, समाज के सभी वर्गोँ का साथ ही नहीँ लाखोँ लोगोँ की भागीदारी भी सुनिश्चित कर ली और नील की खेती के कष्ट दूर कराने के साथ अंगरेजी हुकुमत और गोरी चमडी का डर दूर कराने, अपनी सादगी, अपने देसी तौर-तरीकोँ पर भरोसा जमाने और रचनात्मक कामोँ का विकल्प पेश करने का सफल प्रयोग भी कर लिया इसलिये इस पर शक शुबहा करने की जरूरत नहीँ होनी चाहिये. कायदे से तो अब इसके हर पक्ष पर गम्भीर विश्लेषण करके ऐसे निष्कर्ष निकालने चाहिये जो आज की दुनिया की समस्याओँ के सन्दर्भ मेँ राह दिखाएँ. गान्धी के इस आन्दोलन मेँ न कहीँ लाठी चली न बन्दूक, न किसी को लम्बा जेल भुगतना पडा, न जानलेवा अनशन करना हुआ, न चन्दा हुआ, न दिखावे का खर्च करना पडा. गान्धी ने चम्पारण से एक भी पैसा चन्दा नहीँ जुटाने दिया और दस महीने के आन्दोलन पर मात्र बाइस सौ रुपए खर्च हुए- बाहर से जुटाया अकेले गान्धी का चन्दा भी खर्च नहीँ हुआ और ब्रजकिशोर बाबू के जुटाए पैसे बाद मेँ और काम मेँ इश्तेमाल हुए.
गान्धी का चम्पारण प्रयोग कई मायनोँ मेँ विशिष्ट है-सिर्फ हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन और ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति के पहले प्रयोग के रूप मेँ ही नहीँ. इसके इस रूप की चर्चा तो होती है भले ही पूरी तफसील और गम्भीरता का अभाव भी रहता हो. जैसा पहले कहा गया है यहीँ और इसी आन्दोलन के दौरान गान्धी ने रचनात्मक ही नही सभ्यतागत विकल्प के अपने प्रयोग की विधिवत शुरुआत की जिसमेँ उनकी इच्छा अंगरेजी शासन से ही नहीँ निलहोँ से भी सहयोग लेने की थी जो पूरी नहीँ हुई. पर वे इस प्रयोग को जिस स्तर पर करना चाह्ते थे वह भी नहीँ हुआ. समय का अभाव था, इस काम के लिए उपयुक्त प्रशिक्षित कार्यकर्त्ताओँ का अभाव था, कुछ मामलोँ मेँ स्थानीय लोगोँ से भी उस स्तर का समर्थन नहीँ मिला जितना गान्धी चाहते थे- वे पांच-छह स्कूल खोलना चाह्ते थे जिसमेँ तीन ही खुल पाए और एक आगे चलकर बन्द हो गया. गान्धी ग्रामीण विश्वविद्यालय और आधुनिक गोशालाएँ भी चलाने का प्रयोग करना चाहते थे पर बेतिया मेँ एक गो सदन खोलने के अलावा ज्यादा कुछ नहीँ कर पाए.. और इन प्रयोगोँ के मूल्यांकन का भी गान्धी को वक्त नहीँ मिला-सिर्फ विद्यालयोँ मेँ आने वाले छात्रोँ की संख्या ही एकमात्र मूल्यांकन का आधार नजर आता है. सो उपयोगी होता कि इस मामले मेँ ज्यादा बारीक शोध होते और प्रयोग की शुरुआत, उसके प्रारम्भिक मूल्यांकन और विस्तार वगैरह की तब हुई चर्चाओँ को सामने लाने का काम होता, बाद मेँ हुए बदलावोँ और विस्तार पर शोध होता. खुद गान्धी ने इस तरह के कामोँ को आगे बहुत महत्व दिया, विस्तार दिया और चम्पारण भी ऐसे प्रयोगोँ की सफलता का गवाह बना, पर उनको आगे बढाने और पश्चिमी विकास माडल का विकल्प बनाने मेँ गान्धी के बाद के कांग्रेसी शासकोँ को कम रुचि रही. उसका क्या हश्र हुआ, कुछ काम अब तक कैसे चल रहे हैँ और क्या होना चाहिए यह अध्ययन और शोध भी होना चाहिये.
गान्धी का चम्पारण पहुंचना एक युगान्तकारी घटना साबित हुआ पर यह प्रयोग कई मायनोँ मेँ विलक्षण था और गान्धी के दम को बताने के साथ ही अन्याय सहने वाले जीवंत समाज मेँ प्रतिरोध की शक्ति के उभरने और खुद गान्धी द्वारा अपनी पूरी ईमानदारी, निष्ठा, दम और समझ के साथ स्थानीय लोगोँ और समस्याओँ से एक रिश्ता जोडने और उन हजारोँ-लाखोँ द्वारा झट से गान्धी पर भरोसा करके उनको अपनाने की अद्भुद दास्तान भी है. गान्धी चम्पारण को तो नहीँ ही जानते थे, जिन लोगोँ के बुलावे पर वे अकेले गए थे उनके सहयोग की भी बहुत साफ सीमा थी. समाज जातियोँ सम्प्रदायोँ मेँ बंटा था और निलहोँ के पक्ष मेँ शासन तो था ही उनका अपना जाल हर जगह फैला था, हर चीज मेँ जमीन्दारोँ का शोषण चलता था. व्यक्तिगत तौर पर गान्धी कुछ तो तैयार होकर आए थे, कुछ चन्दा वगैरह के स्रोत लेकर आए थे, कस्तुरबा समेत कुछ कार्यकर्ता लाने की स्थिति मेँ थे और दक्षिण अफ्रीका के प्रयोग से सामाजिक-राजनैतिक काम करने का एक खाका भी उनके दिमाग मेँ था. पर जब चम्पारण ही क्योँ पूरे बिहार मेँ एक भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता न हो, बाहर से आने वाले हर कार्यकर्ता के साथ उसका नौकर और रसोई साथ आ रहा हो, अनजान इलाका, मुश्किल मौसम, बोली और भाषा की भी दिक्कत हो तब अप्रैल की गर्मी से शुरु करके गान्धी किस तरह इलाके मेँ घूमे होंगे, किस तरह सारे नेताओँ को साथ भोजन करने तक मनाया होगा, बडे-बडे वकीलोँ तक को कैरियर छोडने तक प्रेरित कर पाए होंगे और निलहोँ के विरोध के आन्दोलन को किस तरह शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई जैसे बडे मुद्दोँ से जोडकर चम्पारण मेँ जमने का फैसला किया होगा यह एक दिलचस्प और प्रेरक कहानी तो है ही यह गान्धी की सम्वाद शैली और उनके सन्देश देने-लेने के तरीके की भी दिलचस्प दास्तान है. और जब हम तत्कालीन दस्तावेजोँ और विवरणोँ पर बारीकी से गौर करते हैँ तो साफ लगता है कि गान्धी इस पक्ष को लेकर बहुत सावधान और सचेत थे. एक साथ स्थानीय लोगोँ से सम्वाद कायम करने के साथ ही ही वे देश- दुनिया से भी बहुत समझ के साथ जुडे थे. संचार के सभी सम्भव साधनोँ का प्रयोग करने एक साथ उन्होने बहुत समझ के साथ स्थानीय और देसज ब्यौरोँ का इश्तेमाल किया. पर यह सब सिर्फ प्रबन्धकीय कौशल का मामला नहीँ है. शायद उनकी सबसे बडी ताकत वे खुद थे और सत्य के साथ उनके प्रयोग थे. एक भी ब्यौरे मेँ चालाकी या अनुचित लाभ लेने की मंशा नहीँ दिखती. और सबको वे अपनी सच्चाई, लगन, स्नेह और समझ से प्रभावित करते हैँ. उनका सन्देश और उनकी कीर्ति आन्दोलन से जुडे लोगोँ ने भी फैलायी और निलहोँ के जानलेवा नेटवर्क ने भी. लेकिन जैसाकि अब सामने आ रहे दस्तावेज बताते हैँ उनकी सबसे ज्यादा तारीफ खुद अंगरेज अधिकारियोँ ने की है. पर उससे गान्धी का सन्देश नहीँ फैला. वह फैला उनके काम, उनके प्रयास और स्थानीय लोगोँ के एहसान जताने और यशगान करने से जो अभी तक कविता, कहानियोँ, गानोँ और कई तरह की प्रस्तुतियोँ के माध्यम से भी सामने आता जा रहा है.
पर जैसा काम रचनात्मक लेखन मेँ हुआ है वैसा काम समाज विज्ञान की विभिन्न धाराओँ के गम्भीर लेखन मेँ नहीँ हुआ है. चम्पारण को, इसके किसानो-मजदूरोँ की समस्याओँ को जानने-समझने और चम्पारण के हर व्यक्ति के मन तक पहुंचकर उसका भरोसा जीतना और इसके बल पर शासन और उससे भी बढकर नील की खेती और तरह-तरह की वसूली कर रहे निलहोँ को अपनी बात के लिए राजी करना, लोगोँ को संगठित करके अहिंसक ढंग से इतना दबाव बनाना कि निलहोँ के साथ प्रतापी और आधी दुनिया पर राज करने वाली ब्रिटिश हुकुमत की नींव हिलाने की शुरुआत करने के पीछे गान्धी की समझ, मानसिक और दूसरी तैयारियोँ के साथ उनका कम्युनिकेशन का कौशल भी था. इसका सबसे अच्छा और सफल उदाहरण चम्पारण ही पेश करता है. सबसे उल्लेख की बात है कि गान्धी को तब तक न चम्पारण का पता था था न नील की खेती का, वे न तो भोजपुरी जानते थे और ना ही ठीक हिन्दी ही बोल पाते थे. गान्धी को कैथी लिपि भी नहीँ आती जिसमेँ चम्पारण के अधिकांश भूमि दस्तावेज थे. गान्धी ने दक्षिण अफ्रीका मेँ कम्युनिकेशन वाले कुछ प्रयोग किए थे. और खुद चम्पारण और इसके किसान भी एक दूसरे से कई नए तरीकोँ से भी संवाद करते थे, सूचनाओँ का आदान प्रदान करते थे. 1857के बाद से तो वे आन्दोलन के मोड मेँ ही रहे थे-कभी गोरा विरोध तो कभी निलहा विरोध जो कई बार हिंसक और बडा भी हुआ. यहाँ गौरक्षा आन्दोलन और आर्यसमाज आन्दोलन भी पर्याप्त दमदार ढंग से चले थे. जिस तरह निलहा विरोधी आन्दोलन के हिंसक रूप ने किसानोँ को मुक्ति से दूर रखा और काफी कष्ट दिया वैसे ही गौरक्षा और आर्य समाज आन्दोलन के कई पक्ष भी अब अधूरे और एकांगी लगते हैँ पर ये प्रभावी थे और इन्होने एक जमीन बनाई थी. और हम पाते हैँ कि चम्पारण आन्दोलन के समय इन दोनोँ धाराओँ का मेल होता है. इसके साथ ही पारम्परिक संचार व्यवस्थाएँ भी अचानक गान्धी के पक्ष मेँ हवा बनाती लगती हैँ और शासन के लोग साधुओँ-फकीरोँ और मेले-ठेले की बातचीत से भी परेशान हो जाते हैँ, खुफिया पुलिस लगाते हैँ.  और जो शासन वाले पहले पीर मुहम्मद मुनिस, हरबंश सहाय, गोरख प्रसाद और राजकुमार शुक्ल जैसे स्थानीय लेखक-पत्रकार-एक्टिविस्ट लोगोँ पर अफवाह फैलाने, हवा बिगाडने-बनाने का आरोप लगाते थे वे खुद अफवाहो का सहारा लेने लगते हैँ. संचार संबन्धी नया अध्ययन करने वालोँ का यह निष्कर्ष है कि जो पक्ष कमजोर होता है, वही ज्यादा अफवाहोँ का सहारा लेता है. अगर एक महीने के अन्दर ही अंगरेज अधिकारी, खुफिया पुलिस और निलहे गान्धी और उनके सहयोगियोँ की शिकायत करने लगते हैँ, उनके खिलाफ झूठ फैलाते हैँ, उनको लेकर अफवाह उडाते है तो यह सीधे सीधे सत्ता समीकरण के पलट जाने का प्रमाण है. और यह काम जांच आयोग बनाने, सुनवाई करने, बहस करने, सर्वसम्मति से रिपोर्ट बनाने और अधिसूचना जारी करने से काफी पहले ही हो गया. और इसे देख समझकर ही शासक जमात गान्धी और आन्दोलन के आगे झुका. गान्धी के मोतिहारी पहुंचते ही पहले झटके मेँ अदालती बाजी मार लेना ही इससे ज्यादा तेज काम हुआ था.
और दूसरी ओर हम देखते हैँ कि ब्रिटिश सूचना तंत्र पहले ही कदम पर पिटा. गान्धी 15अप्रैल को मोतिहारी पहुंचे पर अंगरेजी हुकुमत के लोग सात तारीख को ही उनके आने का इंतजार ही नहीँ कर रहे थे पुलिस और फौज को भी तैयार करके रखे हुए थे. वे मान रहे थे कि गांघी आकर यहाँ की ज्वलनशील स्थिति मेँ माचिस लगाएंगे. जिस स्तर पर शासन तैयार था और जिस तरह फौज, रेलवे पुलिस, क्राइम ब्रांच, स्पेशल ब्रांच की तैयारी थी और पहले किस तरह कहाँ सख्ती हुई थी उन सबको ख्ंगाल लिया गया था. ऐसे मेँ कमिश्नर मोर्सहेड ने जो किया अर्थात गान्धी को जिला छोडने का हुक्म दिया वह एक स्वाभाविक कदम लगता है. और इस स्वाभाविक कदम को गान्धी ने अपना सबसे पहला और दमदार औजार बना लिया. फिर एकाधिक बार सरकारी तंत्र की सूचना की भूल दिखती है और एक बार तो लेफ्टिनेंट गवर्नर तक को अखबार मेँ सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पडी. एक बार 17जुलाई 1917को तो ब्रिटिश सूचना तंत्र ने यह खबर फैला दी कि अहमदाबाद के सेठ अम्बालाल साराभाई की बहन अनुसूया गान्धी के आश्रम मेँ चली गई गैँ और अपने साथ एक लाख रुपये ले गई हैँ. वे शीघ्र ही चम्पारण जाने वाली हैँ. 29जुलाई को उसी एजेंसी ने अपनी इस खबर को झूठा करार दिया. आन्दोलन के समय जो अस्ंख्य अफवाह उड रहे थे उनमेँ से कई तो अंगरेजोँ के उडाए थे और उनके प्रचार-प्रसार मेँ तो शासकीय सूचनातंत्र का योगदान था ही.और सबसे बडी असफलता तो तब दिखी जब सरकार द्वारा बैठाए गए आयोग की सिफारिशेँ मानकर शासन ने नए कानूनी प्रावधान किए और उनकी अधिसूचना सार्वजनिक रूप से हिन्दी मेँ कराई. यह काम गलतफहमी दूर करने, अफवाहोँ को रोकने और जनता को सूचना देने के लिए किया गया था पर इसकी भाषा ऐसी थी और इसमेँ इतने कंफ्युजन छोडे गए कि खुद शासन परेशान हो गया ( देखे परिशिष्ट-9). सबसे मुश्किल लगान वसूली के मामले मेँ हुई और फिर शासन के अन्दर भी तू-तू मैँ-मैँ हुई. और कुल मिलाकर चम्पारण आन्दोलन के समय ब्रिटिश हुकुमत ने जिस तरह का कम्युनिकेशन किया वह अंतत: उसके अपने लिये घातक ही साबित हुआ. 
गान्धी और चम्पारण के कम्युनिकेशन कौशल पर विस्तार से चर्चा के पहले थोडी चर्चा उस पिट जाने वाले इम्पीरियल और पश्चिमी कम्युनिकेशन नेटवर्क पर भी कर लेनी चाहिये. राज के समय मेँ ही संचार का काम कहाँ से कहाँ पहुंचा यह दिलचस्प तुलना तब के अखबार आबजर्वरमेँ छपी थी कि 1875-76मेँ जब प्रिंस आफ वेल्स भारत आए थे तो उनकी यात्रा से जुडी खबरेँ चार हफ्ते बाद इंगलैंड पहुंचती थीँ और जब उनके पोते ने 1921मेँ  भारत की यात्रा की तो शाही परिवार से हर घंटे उनकी बात होती थी या उनकी खबर दी जाती थी. 1865मेँ समुद्र के नीचे बिछे इंडो-युरोपियन केबल नेटवर्क ने एकदम सब कुछ बदल दिया. फिर और कम्पनियाँ आ गईँ और युरोप तीन तरफ से भारत से जुड गया. पहले तीनोँ रास्तोँ के बीच जल्दी सूचना भेजने की होड शुरु हुई तो बाद मेँ उसी तरह प्रति शब्द तार भेजने की कीमत घटाने की मारा मारी शुरु हुई जैसे आज मोबाइल और नेट कम्पनियोँ के बीच लगी है. उन्नीसवीँ सदी का आखिरी और बीसवीँ सदी के शुरुआती 25-25साल उसी तरह से संचार क्रांति के लिए महत्वपूर्ण हैँ जैसे कि बीसवी सदी के आखिरी और इक्कीसवीँ सदी के एक-एक दशक जब हम नेट, कम्प्यूटर और मोबाइल क्रांति से जुड रहे हैँ. और यह दिलचस्प चीज भी ध्यान देन की है कि तब का साम्राज्यवाद संचार क्रांति को इस भरोसे से आगे बढाने मेँ लगा था कि वह उसके उपनिवेशोँ के शासन और आर्थिक हितोँ को सुरक्षित रखेगा, पर ऐसा हो न सका. और आज की संचार क्रांति ऐसी कोई बात चर्चा मेँ भी आने देना नहीँ चाहती. वह सब कुछ खुलेपन और उदारता के नाम पर चला रही है और अमेरिका केन्द्रित विश्व व्यवस्था को इतना मजबूत कर रही है. यह भी है कि इसके खिलाफ की आवाजेँ इसी संचार क्रांति से एकजुट होती लगती हैँ पर इसको किसी तरह की चुनौती सम्भव भी नहीँ लगती.
हैरानी होती है कि गान्धी ने किस तरह यह सब हासिल किया. तब इस संचार क्रांति के झांसे को समझना ज्यादा मुश्किल था क्योंकि उसका पूरा सच सामने नहीँ आया था. आज यह बात समझना-समझाना ज्यादा आसान है कि संचार के पूरे खेल की राजनीति, आर्थिकी और समाजशास्त्र भी होती है और इसके संचालन मेँ शासन, बाजार और समाज की अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैँ जो अदलती-बदलती भी रहती हैँ और आम तौर पर बाजार ही सबसे शक्तिशाली साबित हुआ है. लोग सिर्फ उपभोक्ता भर नहीँ होते पर उनकी भूमिका तब तक नोटिस मेँ आने लायक नहीँ होती जब तक वे सचेत और संगठित न होँ. और गान्धी के साथ एक और व्यक्ति की चर्चा जरूरी है जो लगभग उन्ही दिनोँ राजनीति मेँ मजबूती से उतर रहा था और जिसने संचार के खेल को जान लिया था. पर उसने अर्थात एडोल्फ हिटलर और उसके सहयोगी गोएब्ल्स ने गान्धी से ठीक उल्टा आचरण किया और खुद तो मरे ही दुनिया को भी काफी नुकसान कर गए. कुछ वैसा ही काम उस रूसी क्रांति के नए अवतार सोवियत संघ के नए नेता स्टालिन ने भी किया जहाँ शत-प्रतिशत साक्षरता और अखबार-रेडियो के जबरदस्त प्रसार-प्रचार के बावजूद खबरोँ को रंगीन चश्मे से देखने दिखाने और प्रतिकूल मान ली जाने वाली सूचनाओँ का गला घोंटने का प्रयोग भी हुआ. इसने भी किसी और के नुकसान से ज्यादा सोवियत संघ और साम्यवाद के दर्शन का किया. हिटलर और स्टालिन के प्रयोगोँ और फिर हुई असफलता ने पश्चिम के बाजार संचालित संचार क्रांति को ही ज्यादा बल दिया.
अपनी पढाई, ब्रिटेन के प्रवास के प्रत्यक्ष अनुभव और अपने दक्षिण अफ्रीकी प्रयोग के बल पर गान्धी ने समझ लिया था कि संचार तकनीक के बदलावोँ के साथ किस तरह ब्रिटिश साम्राज्य की संचार व्यवस्था बदली, किस तरह समाचार एजेंसी नामक बिजनेस शुरु हुआ, किस तरह दस लाख तक प्रसार संख्या वाले अखबारोँ और पत्रिकाओँ का विकास हुआ, उनके और साम्राज्य के ही नहीँ ब्रिटेन की विभिन्न पार्टियोँ और राजनैतिक दर्शनोँ से उनका क्या रिश्ता था, उनके प्रतापी सम्पादक और दिल्ली रिपोर्टर किस तरह साम्राज्य के हितोँ और नीतियोँ से प्रभावित थे और वे भी इन्हे किस तरह प्रभावित करते थे. और किस तरह इंगलैंड मेँ अपना कारोबार फैला रहे लोकतंत्र को इनसे मदद मिली या राजनीति वाले लोग पब्लिक ओपिनियन की परवाह करने लगे. किस तेजी से शासन और उसके दावेदार प्रेस की महत्वपूर्ण होती भूमिका के मद्देनजर मीडिया मैनेजमेंट को महत्व देने लगे. गान्धी ने दक्षिण अफ्रीका मेँ रहते हुए इस नेटवर्क का इश्तेमाल किया और उसकी सीमाएँ समझ आने पर एक समांतर नेटवर्क भी खडा करने की कोशिश की. पर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि चम्पारण आन्दोलन के समय उन्हे, शासन के लोगोँ और निलहे, तीनोँ को इस नेटवर्क की ताकत, चरित्र और सीमाओँ का अन्दाजा था और तीनोँ ने उसका अपने-अपने ढंग से प्रयोग किया.
और यह मात्र सन्योग नहीँ है कि गान्धी कम्युनिकेशंके अपने प्रयोग पर बहुत शुरु से सचेत हो गए थे. जब गान्धी ने दक्षिण अफ्रीका की अपनी लडाई मेँ ताल ठोंकना शुरु किया तभी उन्हे वहाँ की मीडिया का चरित्र समझ आ गया. सो उन्होने कई नए प्रयोग और बदलाव तभी कर लिए थे. जब वे भारत आकर गोखले की सलाह पर देश देख रहे थे, जब अचानक चम्पारण पहुंचे और फिर असहयोग आन्दोलन और नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के जरिये पूरे देश को हिलाने की स्थिति मेँ आ गए तब भी वे अपने ढंग से इस संचार प्रणाली का उपयोग कर रहे थे, बल्कि ऐसे आन्दोलन खडे करने मेँ इस नेटवर्क की भूमिका थी. और संचार का जो वितान तब पश्चिम ने अपने मतलब से रचा और खडा किया था उसका होशियारी से प्रयोग करके गान्धी और उन जैसे अन्य नेताओँ ने उपनिवेशवाद की ही जड खोद दी और अपनी बातोँ को दुनिया के सामने रखकर यह साबित भी किया कि वे अंगरेजी हुकुमत भर से मुक्ति की लडाई न लडकर पश्चिमी सभ्यता के एक वैश्विक विकल्प की लडाई लड रहे थे. साथ ही उन्होने यह भी दिखाया कि संचार और खासकर जनसंचार के मामले मेँ मशीनोँ और हार्डवेयर की जगह  साफ्टवेयर अर्थात अकल का काम ज्यादा महत्वपूर्ण है अगर यह सीखना हो तो गान्धी के प्रयोगोँ से बढिया उदाहरण नहीँ मिलेगा. पर यह भी ध्यान मेँ रखने की चीज है कि इस प्रयोग मेँ गान्धी ने अपना क्या-क्या कुछ दांव पर लगाया, किस जुनून से काम किया और कितनी सच्चाई तथा नैतिकता रखी क्योंकि इन चीजोँ के बगैर गान्धी को मिली सफलता के गलत अर्थ लगाए जा सकते हैँ. 
जहाँ तक तब की मीडिया की अपनी बात है तो मोटे तौर पर अंगरेजी अखबार ही पश्चिमपरस्त और ब्रिटिश हुकुमत के प्रति पूरी निष्ठा रखने वाले थे. पर जब तब गान्धी चम्पारण गए तब तक हिन्दी और भाषायी अखबार भी आ गए थे और अंगरेजी अखबारोँ मेँ भी कुछ कुछ चीजेँ शासन के खिलाफ वाली छपने लगी थीँ. कुछ देसी नजरिये वाले अंगरेजी अखबार भी आ गए थे. पर इन सब पर और समाचार एजेंसियोँ ही नहीँ परचे से लेकर किताबोँ तक की छपाई-बाइंडिंग-वितरण पर कडी नजर रखने वाले कानून और शासन तंत्र भी खडा किया गया था. यह कुछ मजाक सा लगेगा कि कोई भी नाटक बिना अनुमति के नहीँ खेला जा सकता था, हर पर्चे मेँ प्रिंटर का नाम देना अनिवार्य था, हर किताब की कितनी प्रतियाँ छपीँ इसके लिए बाइंडर का प्रमाणपत्र देना अनिवार्य था. और तब भी लोग एक पैर जेल मेँ एक पैर बाहर रखकर अखबार निकालते थे और अपने मन की बात ही लिखते थे. अपनी आदत से मजबूर और हुकुमत डगमगाने के खतरे के मद्देनजर शासन ने सारे अखबारोँ पर नजर रखने और जरा भी खिलाफ बात आने पर अखबारोँ का गला दबाने लायक कानून और तंत्र भी बना रखा था. और चम्पारण मामले मेँ तो बिहारीअखबार मेँ रैयत समर्थक रिपोर्ट और आलेख छपने के जुर्ममेँ इसके सम्पादक महेश्वर प्रसाद की किस तरह छुट्टी की गई वह किस्सा तब काफी चर्चित हुआ था. बल्कि अखबार के मालिक दरभंगा महाराज ने, जो कई बार कांग्रेस को भी काफी मदद दे चुके थे, इस अखबार को ही किसी और के हाथ बेच दिया. पीर मुहम्मद मुनिस की स्कूल मास्टर की नौकरी जाना और हरबंश सहाय की राज स्कूल से विदाई भी चम्पारण आन्दोलन के कम्युनिकेशन प्रयोग का ही एक हिस्सा हैँ. प्रताप अखबार के गणेश शंकर विद्यार्थी को क्या क्या भोगना पडा वह सब इतिहास का हिस्सा है. इन सबको भूलकर तब के कम्युनिकेशन के प्रयोग और व्यवहार की असलियत नहीँ समझी जा सकती. पर इस स्थिति को बदलने मेँ गान्धी और स्थानीय कम्युनिकेशन प्रणाली ने जो चमत्कारी काम किए उसका विवरण काफी बडा और व्यापक है और इसके सूत्रधार बहुत कम समय मेँ गान्धी ही हो गए थे.
पर कम्युनिकेशन पर इतना जोर देने से कही यह भ्रम नहीँ बना लेना चाहिये कि गान्धी कम्युनिकेशन भर के उस्ताद थे और जो कुछ किया वह इससे ही किया और इसी के चलते आज भी उनकी बातेँ हम तक आ रही है. और उनके लिए सन्देश या सूचना देना सिर्फ बढिया रिलीज देना, गिफ्त के साथ उसे छपवाने-चैनल पर चलवाने का इंतजाम करना और मीडिया मैनेजमेंट भर न था. कम्युनिकेशन उनके लिए अपने बडे उद्देश्य को हासिल करने का एक सहयोगी उपकरण भर था. इससे उन्होने चम्पारण मेँ सदियोँ से अन्याय से जूझ रही जनता को मुक्ति दिलाई. पर यह नहीँ भूलना चाहिये कि किसी भी जीवित समाज की तरह चम्पारण के लोग भी अपने से हो रहे अन्याय का प्रतिरोध कर रहे थे-वे भी इसके लिए कम्युनिकेशन के चैनलोँ का इश्तेमाल कर रहे थे, वे भी कई तरीके आजमा रहे थे.जिनसे उन्हे सफलता नहीँ मिल रही थी. कभी वे साम्प्रदायिक लाइन ले रहे थे, कभी उन्हे वैदिक युग मेँ हर समस्या का अंत नजर आ रहा था, कभी वे जाति और धर्म के नाम पर बंट जाते थे तो कभी दूसरे इलाके या फार्म का मामला मान कर वे एक दूसरे की लडाई मेँ भागीदारी करने से बचते थे. और बदले मेँ और अधिक दमन का शिकार होते थे. पर उन दोनोँ आन्दोलनोँ ने बाहरी कार्यकर्ताओँ के प्रचार, साधु-संतोँ की सेवाएँ लेने ( और उनके वेश मेँ अपने कार्यकर्ताओँ से भी काम कराने), उत्तर बिहार के मेलोँ और धार्मिक आयोजनोँ के सहारे मीटिंग करने और अपने सन्देशोँ को दूर दराज तक फैलाने का विश्व्सनीय नेटवर्क खडा किया जो बाद मेँ किसान नेताओँ ने और फिर गान्धी के आन्दोलन मेँ भी इश्तेमाल हुए-उनकी इच्छ के बगैर या उनके चुप रहने से. गान्धी ने एक बाहरी व्यक्ति होकर भी जिस तेजी से पूरे चम्पारण औए एक मायने मेँ बिहार के सचेत लोगोँ को एकजुट किया, उनको अपनी राजनीति के रंग मेँ रंग दिया और बार-बार हिंसक रूप ले लेने वाले स्थानीय गुस्से को अहिंसक ढंग से निकालने का रास्ता उपलब्ध कराया वह असली चीज है. इसमेँ नील की कष्टदायी खेती से मुक्ति तो मिली ही गान्धी ने चम्पारण को और मुल्क को भी बहुत कुछ दिया.
जो सम्भवत: सबसे बडी चीज चम्पारण और मुल्क को मिली वह थी गोरी चमडी और शासन से डर की विदाई. चम्पारण के लोग गोरी चमडी और अंगरेज शासकोँ से ही नहीँ उनके लाल तोपी वाले हिन्दुस्तानी सिपाही तक से बहुत डरते थे, बिना वर्दी वाले अमले से भी डरते थे. समाज और आर्थिक जीवन पर शासन और निलहोँ का कब्जा ऐसा था भी. जिस पेद पर फल पके, जिस किसान के यहाँ भैंस आए, जिसके यहाँ गन्ना पेरने का कोल्हू लगे, जिसके यहाँ शादी हो सब खबर उनको रहती थी और सब पर कर वसूल लिया जाता था. कर न देने पर मुर्गा बनने, खम्भे से बान्धकर पिटने, सीने पर पत्थर रखकर धूप मेँ डाल दिये जाने, सिर फोड दिये जाने और बरछे से लहू-लुहान होने के अनुभव रोज के थे. गान्धी ने एक झटके मेँ यह डर खत्म करा दिया और जब सबसे पिछडे और दबे चम्पारण के लोग इस डर को विदा कर सकते थे तो बाकी मुल्क और गोरी सत्ता के अधीन रहने वाली प्रजा के लिए यह काम मुश्किल नहीँ रह गया. इस मामले मेँ गान्धी का चम्पारण का प्रयोग अद्भुद था. उन्होने अपने दोनोँ गोरे दोस्तोँ और सहयोगियोँ चार्ली एंड्रूज और पोलक को सिर्फ इसलिए चम्पारण मेँ नहीँ रहने दिया कि बाकी सहयोगियोँ के मन से गोरी चमडी का खौफ खुद से निकले. उन्होने बेकसूर कृपलानी को पन्द्रह दिन इसलिए जेल जाने दिया कि इससे चम्पारण के लोगोँ के मन से जेल और शासन का खौफ खतम होगा. खुफिया पुलिस के लोगोँ को अपनी सुनवाई के दौरान कुर्सी देकर बैठाए रखने की उनकी रणनीति के पीछे भी शासन का डर कम कराना था. चम्पारण यह नतीजा देने वाला पहला प्रयोग था.
गान्धी ने प्रयोग चम्पारण से उससे भी बडा काम यह किया कि एक स्थानीय आक्रोश को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड दिया. इससे पहले बिहार ही क्योँ पूरे मुल्क मेँ राष्ट्रीय आन्दोलन की कोई जमीनी शुरुआत नहीँ हुई थी. जो हुआ वह क्लबनुमा कांग्रेस के अधिवेशन थे जिसमेँ बडे-बडे लोग आते थे, ऊंची-ऊंची बातेँ होती थीँ और फिर सभी वापस अपने-अपने धन्धे मेँ चले जाते थे. गान्धी ने चम्पारण के जरिये कांग्रेस को जमीन पर उतारा तो एक बहुत ही स्थानीय आन्दोलन को देश से जोडा. राजेन्द्र बाबू, ब्रजकिशोर प्रसाद ही नहीँ राजकुमार शुक्ल, रामनवमी प्रसाद, गोरख प्रसाद, पीर मुहम्मद मुनिस और हरबंश सहाय जैसे चम्पारण के सचेत लोगोँ ने पहले कांग्रेस का नाम सुना था, खुद को उससे जोडना चाह्ते थे, पर गान्धी के आन्दोलन ने उन्हे सक्रिय कांग्रेसी बना दिया, राष्ट्रीय आन्दोलन का सिपाही बना दिया. और वे सब लोग भी इस बात के लिए खुद को धन्य मानते रहे कि गान्धी ने उन्हे असली गांव, असली भारत की समस्या से रू ब रू कराया और उन समस्याओँ के निदान का कोर्ट-कचहरी से अलग एक नया रास्ता दिखाया. सिर्फ यही चन्द नाम ही नहीँ जुडे पूरा चम्पारण रास्ट्रीय आन्दोलन, कांग्रेस और गान्धी के साथ ऐसा जुड गया कि पूरी आजादी की लडाई मेँ गान्धी और कांग्रेस के फैसलोँ और इच्छा का सबसे ज्यादा सम्मान यहीँ हुआ. ऐसा सिर्फ राजनैतिक मामलोँ मेँ ही नहीँ हुआ, गान्धी के रचनात्मक प्रयोगोँ को अपनाने मेँ भी चम्पारण अव्वल रहा. सबसे गरीब इलाकोँ मेँ एक होकर भी चम्पारण इन कामोँ मेँ सबसे ज्यादा साधन देने वाला जिला साबित हुआ और किसी भी दौर मेँ अहिंसा पर शक नहीँ किया. बयालीस मेँ पूरे चम्पारण से अंगरेजी हुकुमत विदा सी हो गई थी पर कहीँ हिंसा नहीँ हुई. और यह भी हुआ कि चम्पारण के लोगोँ की दिलेरी को पच्चीस साल पहले देख चुकी ब्रिटिश सत्ता को यहाँ जुल्म करने की हिम्मत भी नहीँ हुई.
गान्धी चम्पारण ही नहीँ बिहार की अपनी पहली यात्र्रा मेँ निपट अकेले आए थे और साथ मेँ कुछ था भी नहीँ. पर महीने-दो महीने के अन्दर उन्होने इतने सहयोगी और शिष्य बना लिये जिसकी गिनती मुश्किल है. इनमेँ तब दस हजार रुपए की फीस रखने वाले कई वकील तो उनकी क्लर्की करने और भोजपुरी से अंगरेजी-हिन्दी तरजुमा करने पर राजी हुए. फिर उन्हे दस-दस मील पैदल चलने, अपने कपडे धोने, जूठे बरतन मांजने, फर्श पर सोने, थर्ड  क्लास मेँ यात्रा करने मेँ भी दिक्कत नहीँ लगी. वे जेल जाने, डंडे खाने के लिए भी तैयार थे. और एकाध को छोडकर सभी पूरे जीवन के लिए गान्धी के रंग मेँ रंग गए. इनमेँ वे लोग भी शामिल थे जो पहले चम्पारण मेँ ही या बाहर भी गैर-गान्धीवादी तरीके से आन्दोलन किए थे. राजेन्द्र प्रसाद, कृपलानी जैसे लोग तो राष्ट्रीय राजनीति मेँ बडी भूमिका निभाने वाले बने तो अनुग्रह बाबू और राम दयालु बाबू जैसे लोग बिहार की राजनीति मेँ महत्वपूर्ण बने. ब्रजकिशोर प्रसाद, शम्भुशरण वर्मा और राजकुमार शुक्ल आजादी एक बाद बडी भूमिका लेने के लिए जिन्दा न रहे पर आखिरी सांस तक राष्ट्रवादी (संघी अर्थ मेँ नहीँ) और गान्धीवादी रहे. प्रजापति मिश्र, विपिन बिहारी वर्मा, विभूति मिश्र समेत सैकडोँ लोग तो इसी आन्दोलन के समय सचेत हुये और जीवन भर देश और गान्धी का काम करते रहे. गिनने बैठेंगे तो किसी और आन्दोलन से इतने ज्यादा लोग निकलते नहीँ दिखेंगे. खैर.
इस पुस्तक मेँ गान्धी के चम्पारण सत्याग्रह के कम्युनिकेशन वाले इसी पक्ष पर ध्यान देने की कोशिश की गई है. दुनिया भर मेँ बडी जनक्रांतियोँ और जनान्दोलनोँ मेँ संचार की इस तरह की भूमिका पर काफी काम हुए हैँ- फ्रांसीसी क्रांति पर  इस तरह  का काम शायद सबसे चर्चित है. अपने यहाँ भी स्वामी सहजानन्द के आन्दोलन, बाबा रामचन्द्र के किसान आन्दोलन और बिरसा मुंडा के आन्दोलन पर ऐसे काम हुए है. कुमार सुरेश सिन्ह जी ने तो बिरसा से जुडे सैकडोँ लोगगीत और लोक कथाओँ का संकलन भी तैयार किया है. गान्धी की पत्रकारिता और संचार कौशल पर कुछ काम हुए हैँ पर बहुत स्तरीय नहीँ हैँ. चम्पारण एक बडा आन्दोलन था भी और दूरगामी असर के साथ-साथ संचार समेत कई मामलोँ मेँ गान्धी के प्रयोग का एक प्रस्थान विन्दु भी. उस हिसाब से गान्धी के इस पहले भारतीय प्रयोग को अभी जानना-समझना बाकी है. पर यह भी सच है कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है यह काम और मुश्किल होता जाएगा. इसलिये इसे अभी रेखांकित करना जरूरी है.  और पूरी राजनीति या समाज सेवा को प्रबन्धकीय कौशल और कैरियर समझने वाले दौर मेँ यह काम और भी जरूरी है. यह एक व्यक्ति की असाधारण क्षमताओँ को समझने भर के लिये ही नहीँ समाज की सोई ऊर्जा को जानने-समझने और उसे जगाने मेँ संचार की भूमिका को जानने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है.



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