हरेप्रकाश उपाध्याय 'बखेड़ापुर'जैसा उपन्यास लिख चुके हैं, आजकल 'मंतव्य'जैसी सुसंपादित पत्रिका के संपादक हैं. 'खिलाड़ी दोस्त'रह चुके हैं. वैसे तो उनके लेखन में व्यंग्य भाव अन्तःसलिला की तरह रही है लेकिन घोषित रूप से व्यंग्य लेखन में पहली बार हाथ आजमा रहे हैं. पढियेगा- मॉडरेटर
===========================================================फतेहगंज के गंज फतेहपुरी जी का फेसबुक फ्रेंड रिक्वेस्ट आया, तो मैंने उनके गुण-धर्म-वर्ण-लिंग वगैरह पर बिना विचार किये ही, उसे इसलिए सहर्ष स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन दिनों मेरे सिर पर पाँच हजार फ्रेंड्स की लिमिट छूने का भूत सवार था। इस जुनून में मैंने खुद ही दस-बीस फेक आई डी बनाकर उसे ऐड कर लिया था और जब भी कोई कविता अपनी वाल पर डालता तो उन फेक आई डी का लाभ लेते हुए अपनी कविता पर लाईक और कमेंट्स की बरसात कर डालता। शायद गंज फतेहपुरी जी को मेरी पूरी जन्म कुंडली पता थी। उन्होंने फेसबुक रिक्वेस्ट भेजने के पहले ही बहुत गौर पूर्वक मेरी प्रोफाइल, मेरे स्टेट्स और विभिन्न जगहों के साहित्यिक दौरों की मेरी तस्वीरों को गौर से देखा था और मेरे बारे में उससे भी अधिक उन्होंने जान लिया था, जितने मेरे पाठक मेरी कृतियों को पढ़कर भी नहीं जान पाते।
मैं आत्म प्रचार में तनिक भी संकोच नहीं करता क्योंकि मुझे पता है, यह बाजार का दौर है। बाजार का सारा खेल प्रचार पर टिका है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ तो मोटी-मोटी रकम लुटाकर प्रचार का लाभ लेने का उद्यम करती हैं। वही सरकारें जनता का धन अपने प्रचार के लिए दोनों हाथों से उलीचती रहती हैं। ये सरकारें और ये कपनियाँ नादान तो हैं नहीं! अब मेरे पास अपने प्रचार के लिए इतना धन तो नहीं है कि अखबारों और टीवी में विज्ञापन निकलवा सकूँ। मैं ठहरा एक ऐसा कवि, जिसे कोई चिड़िया तक घास नहीं डालती। प्रकाशक तक किताबें छापने के लिए उलटे सहयोग राशि माँगते हैं। मतलब देना ही देना है, लेना कहीं नहीं। इसलिए फेसबुक पर ही लगा रहता हूँ। वहाँ जितना संभव हो पाता है, उतना अपना प्रचार करता हूँ और चिड़ियों के लिए अपने दाने और जाल भी फेंकता रहता हूँ कि “क्या पता किस चिड़िया में बंधन की चाह हो!”पर अब यह किस्सा फिर कभी कि उस जाल में कोई चिड़िया फँसती है या कि कोई बाज या गिद्ध। यहाँ तो मैं आपको यह बतलाने जा रहा हूँ कि गंज फतेहपुरी जी ने फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट होते ही मेरे इनबॉक्स में चारा फेंक दिया।
मैं तो चारे में ही भाईचारे को देखने वाला जीव ठहरा। गंज फतेहपुरी जी के चारे के आगे मुझे धराशायी होना ही था। उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनके गाँव में एक साहित्य समारोह होना चाहिए और उसके लिए उन्होंने मुझसे अपना आशीर्वाद और मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया था। ये दोनों चीजें मेरे पास रेडीमेड रहती हैं, जिन्हें मैं किसी को देने के लिए तत्पर-मुस्तैद रहता हूँ। मेरा भरोसा है कि आशीर्वाद बाँटने से ही आशीर्वाद मिलता है और मार्गदर्शन करने से ही खुद के लिए भी कोई न कोई रास्ता निकलता है। तो इनबॉक्स में चारे की तरह गिरे गंज फतेहपुरी जी के संदेश का बहुत उत्साह से उत्तर देते हुए मैंने विस्तार से उन्हें लिखा कि किस तरह गाँवों में साहित्य का प्रचार-प्रसार आज के बाजारवादी और कठिन समय में बहुत जरूरी है और यह भी कि उम्मीद की किरण गाँवों से ही फूटेगी। मैंने सरकार को कोसते हुए उन्हें बताया कि सरकार गाँवों को भुला चुकी है, इसलिए हम साहित्यकारों को गाँवों की तरफ ध्यान देना होगा। साहित्य को गाँव में ले जाकर और गाँव को साहित्य में लाकर ही हम साहित्य और गाँव दोनों का उद्धार कर सकते हैं।
मेरे इस लम्बे वक्तव्य का गंज फतेहपुरी जी पर उत्साहजनक असर पड़ा और उसी दिन की रात में उन्होंने डेट-वेट फाइनल करते हुए अपने गाँव पधारने का न्यौता मुझे दिया। साथ ही उन्होंने अपने शहर से दो-चार और कवियों को लाने का आग्रह किया। इससे मेरा दिल बाग-बाग हो गया। बहुत दिनों से मुझे किसी कवि गोष्ठी या साहित्य सम्मेलन में बुलाया नहीं गया था,जिससे मैं हीनताबोध में फँसा जा रहा था, वैसे में इस अवसर ने न सिर्फ मुझे उससे उबार लिया बल्कि मेरे भीतर अद्भुत उत्साह का संचार किया और बहुत दिनों से बंद मेरी लेखनी भी कुछ छंद रचने के लिए कुलबुलाने लगी। पर मैंने लिखने का काम तत्काल प्रभाव से निलंबित किया क्योंकि यह अवसर लिखने का नहीं, तैयारी बाँधने का था। मुझे अपने शहर से चार और कवियों को लेकर अगले हफ्ते फतेहगंज में होने वाले साहित्य समारोह में पहुँचना था। इसके लिए आप समझ सकते हैं कि मुझे क्या-क्या तैयारी करनी पड़ती।
मैं तत्काल कलम-कागज लेकर अपने शहर के कवियों का नाम याद करने लगा। सबसे पहले तो कागज पर मैंने उस बनिये का नाम लिखा, जिससे उधार लेकर इधर मेरा काम चल रहा था। सोचा इस बनिये को कविता करने का शौक तो है, मगर यह ठीक तरीके से अभी लांच नहीं हो पाया है। इसे मैं फतेहगंज में लांच कर दूँगा। दूसरे, इसके पास पैसा है मगर इसका जीवन कितना नीरस है। घर से दुकान के बीच आता-जाता रहता है। इसके सिवा शायद ही कहीं घूमा-फिरा हो। गाँव तो इस करमजले ने सपने में भी नहीं देखा होगा। महाकवि पंत जी ने भी क्या खूब लिखा है- अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है! इस बनिये का जनम सार्थक हो जाएगा, जब यह गाँव के प्राकृतिक नजारे लेगा। इस उपकार के बदले मैं अपना सारा उधार उससे पटा लूँगा। कवि सम्मेलन में जो इसकी फीस मिलेगी,वह तो मैं ही रख लूँगा। इसे वहाँ जो मोमेन्टो और शॉल मिलेगा, वही इसके लिए उपलब्धि होगी। यह आजन्म मेरा पाँव पूजेगा। इसकी मैं वो खातिरदारी करवाऊँगा, वो खातिरदारी करवाऊँगा कि दुकान चलाना भूलकर मेरे पीछे-पीछे कवि सम्मेलन के लिए लगा रहेगा। इसको तो मैं पक्का चेला बनाकर ही छोड़ूँगा। जैसे मोदी जी ने भक्त बनाये हैं, मैं भी साहित्य में भक्त बनाऊंगा। फिर सर्जिकल स्ट्राइक कर दिखलाऊंगा। मेरे मन में यह ख्याल आते ही देश के प्रधान सेवक की तरह खुद की एक सेल्फि लेने का ख्याल मचलने लगा पर अवसर के तकाजे के कारण कुछ देर के लिए उसे किसी तरह टाला। इसके बाद मुझे अपने शहर के सबसे तीसमार खाँ टाइप कवि का नाम याद आया। वे बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े सेठों के बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में अक्सर बुलाये जाते रहते हैं। शहर में भी उनकी ग़ज़ब की प्रतिष्ठा है। शहर में दुर्गा पूजन समारोहों से लेकर कुत्ते की मौत की खबर पर अखबार वाले उनसे प्रतिक्रिया लेकर सम्मान से छापते रहते हैं। वे शहर की तमाम गोष्ठियों के इकलौते अध्यक्ष हैं। पर उनका नाम मैंने कागज पर लिखकर तुरंत ही काट दिया। इस हरामी ने आखिर मेरा भला कभी किया है क्या, जो मैं इसे फतेहगंज में होने वाले साहित्य समारोह में चकल्लस काटने लिवा जाऊँ। इसने तो कहीं कभी मेरी सिफारिश नहीं की। मनहूस है। ऐसे मनहूसों को साथ लेकर जाने की कतई जरूरत नहीं। इसका नाम काटने के तत्काल बाद मैंने शहर की दो उभरती कवयित्रियों का नाम लिख दिया। काग़ज़ उठाकर मैंने इन दो नामों को चूम भी लिया। मेरी आँखें बंद हो गयीं। शरीर में रोमांच की लहरें हिलोर मारने लगीं। मेरे मुँह से निकला- अब आएगा असली मज़ा। अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है...! इनके संग जब गाँव की नहर में बीयर पान के बाद स्नान करूँगा, तो इंद्र भी स्वर्ग में बैठा हाथ मलता रह जाएगा। उन कवयित्रियों की प्रतिभा पर मुझे गहरा भरोसा था। वे हमारे शहर की कुख्यात कवयित्रियाँ थीं। उनका संयुक्त कविता संग्रह अभी हाल ही में जयपुर के एक प्रकाशन से आया था- ‘आओ जिस्म की पीपीहरी बजाएं’।संकलन फेसबुक पर तहलका मचाये हुए था। वे कवयित्रियाँ जहाँ जातीं, महफिल में रंज जमा देती थीं। ऊपरवाले ने उन्हें खूब मेहनत से संवारा था। मैंने ऊपरवाले का शुक्रिया अदा किया। तभी ऊपर से हमारी भाग्यवान ने पुकारा, ‘‘अजी सुनते हो, ये मुन्ना रो रहा है, ज़रा इसे सामने के पार्क से घुमा तो लाओ।’’
यह सुनते ही उसी ऊपर वाले को मैंने गालियाँ देनी शुरू की, जिसका अभी-अभी शुक्रिया अदा किया था। मैं मुन्ने को लेकर पार्क में चला गया और उसे एक कोने में धूल-मिट्टी के बीच उसके भाग्य पर छोड़ संभावित कवियों को फोन करने लगा। पर खुदा को कुछ और ही मंजूर था। मेरा प्रोग्राम धरा का धरा रह गया। उस बनिये ने फोन पर ‘हलो’कहते ही अपने उधार का तगादा किया। साहित्य सम्मेलन में जाने में उसने तनिक भी दिलचस्पी नहीं दिखाई- ‘‘छड़ो जी, गाँव जाके कि करना। गाँवों में मच्छरों से देह नुचवाने का शौक अपन को नहीं है। आप ही जाओ जी। रब्ब तेरा खैर करे।’’
दोनों कवयित्रियाँ भी दगाबाज निकलीं। दोनों ने अत्यंत उत्साह और चहकते हुए सूचना दी कि वे शहर के उसी तीसमार खाँ कवि जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है, के साथ दिल्ली के किसी कवि सम्मेलन में जा रही हैं। मैं तीनों को कोसने के सिवा और क्या कर सकता था। उन कवयित्रियों से मुझे घिन हो आयी। मैंने उनकी चरित्रहीनता को याद किया, कोसा और मुन्ने को गोद में लेकर घर लौट आया।
अंतत: फतेहगंज के उस साहित्य समारोह के लिए मुझे वैसे तीन जनों को साथ लेकर जाना पड़ा जिन्हें मैं कतई पसंद नहीं करता। हम लोगों ने किराये की एक टैक्सी ली और उस साहित्य समारोह के लिए शहर से प्रस्थान कर गये। हम तीनों रास्ते में इस बात का अनुमान लगाने में भिड़े रहे कि उस समारोह में हमें कहाँ ठहराया जाएगा, क्या-क्या खिलाया-पिलाया जाएगा और भुगतान के रूप में कितने-कितने रुपये नगद लिफाफे में दिये जाएंगे। मेरे साथ चल रहे मेरे शहर के तीनों कवियों का विचार था कि मुझे सारी चीजें आयोजक से पहले ही तय कर लेनी चाहिए थी। उनका कहना था कि वे अपना काम-धाम छोड़कर दो दिन बर्बाद कर साहित्य सेवा करने जा रहे हैं, तो दो दिन का उनका जो वेतन बनता है, उतना तो मेवा मिलना ही चाहिए। साथ ही चूँकि वे घर छोड़कर दो दिन के लिए जा रहे हैं, उसकी क्षतिपूर्ति भी होनी चाहिए। वे लंबी-चौड़ी अपेक्षाओं की ख्याली पुलाव पका रहे थे। साथ ही प्रकारांतर से यह संकेत दे रहे थे कि ये सब चीज़ें वे मुझसे ही वसूलेंगे। मैं ही उसके लिए जिम्मेदार हूँ, चूँकि वे आयोजक के बुलावे पर नहीं,मेरे बुलावे पर जा रहे थे। मैं उन्हें क्या बताता कि आयोजक से मैंने सारी चीज़ें पहले क्यों नहीं तय की। मुझे डर था कि सारे डिमांड पहले रख देने से आयोजक कहीं भड़क न जाये और हमें बुलाने का प्रस्ताव ही न रद्द कर दे। इसलिए मैंने सब कुछ उस ऊपर वाले पर यानि अपने भाग्य के भरोसे छोड़ रखा था। मेरे साथ चल रहे कवियों को कोई पूछता तक नहीं था। वे शायद ही कभी
किसी साहित्य समारोह में गये हों। वे नौकरीशुदा लोग थे और स्वांत: सुखाय साहित्य सेवा करते थे। मैं
भी उन्हें अपनी मजबूरी में अपने साथ ले जा रहा था, क्योंकि और कोई मुझे कायदे का मिला नहीं। मेरे साथ चल रहे मेरे इन यारों ने भले ही किसी साहित्य समारोह में शिरकत न की हो, पर ये कवि
सम्मेलनों में कवियों को मिलने वाली मौज़ों और सुविधाओं को अच्छे से जान रहे थे और उससे तनिक भी कम पर राजी नहीं थे। उनके मन में फूलझड़ियाँ फूट रही थीं। वे रास्ते में जगह-जगह गाड़ी रोक देते और तरह-तरह की चीज़ें खाते-पीते, खिलाते-पिलाते चल रहे थे। साथ ही यह जताते भी चल रहे थे कि जितना वे खर्च कर रहे हैं, उससे अधिक आयोजक से टीए-डीए के रूप में वसूल लेंगे। गाड़ी जब तक शहर में रही, शहरों से गुज़रती रही, हमारी बहुत मौज़ रही। हम मदहोश बने रहे। मुर्गों की टाँगे चबाते रहे।बीयर पीते रहे। आँय-बाँय बोलते रहे। सपने देखते रहे उस सुख की जो गाँव में हमें नसीब होनी थी- आस-पास टहलती गाँव की गोरी, देसी मुर्गी, घी में डूबी बाटी, महुए की शराब, घुटने तक धोती खोंसे नौकर-चाकर..अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है।...
गाड़ी झटके से एक गड्ढे में गिरी और इंजन बंद। अब हम गाँव के रास्ते पर थे। गड्ढा थोड़ा सा गहरा था। कार चला रहे सारथी ने कहा- ज़रा उतर कर पीछे से जोर लगाइये साब जी। हमारा नशा टूट गया। सपना टूट गया। मगर सपने को अभी और टूटना था। अब हर दो-चार मिनट के बाद गाड़ी किसी गड्ढे में फँस जाती। हम उतर कर गाड़ी को पीछे से धक्का देते। एक जगह तो आगे इतना गहरा गड्ढा था कि उसमें गाड़ी को उतार देते, तो हमेशा के लिए ही उतार देते। वहाँ गाड़ी रोक कर हम बेचैनी की इंतिहाँ महसूस करने लगे। पास के गाँव वालों ने फिर एक दूसरा रास्ता बताया। वह रास्ता काफी घुमावदार था। हम रास्ता भटक गये। अब आयोजक को कष्ट देने के लिए हम विवश थे। आयोजक को फोन किये, तो वह अर्द्ध नशे में था- आँय, आ रहे हैं का आप लोग? ...कहाँ फँसे महाराज...हम बोले थे न कि आप लोग कार से नहीं आइएगा..आप लोग माने नहीं न...हम अइसहीं बोल दिये था का...ए महराज... हलो-हलो...अच्छा-अच्छा बताइये कहाँ हैं...हलो, अच्छा...। आगे बढ़के बाँये हो जाइये... फिर आगे से दाँये... आगे बढ़िये...रास्ता में भेंट हो जाएगी...रास्ता खराब है और रात भी हो रही है सम्हर के
भाई...आइये आप लोग मेहमान हैं।
हम अब खुद को कोसने लगे थे। पछताने लगे थे। आगे बढ़े तो बीच सड़क पर बाइक लगाये पुलिया पर बैठे तीन-चार नौजवान नशे के क्षेत्र में तरक्की कर रहे थे। हमारी गाड़ी रुकती देखकर उनमें से दो हमारी तरफ लपके- आँय...कहाँ से आ रहे हो जी तुम लोग...कहाँ जाना है...?
एक जो अपनी जगह पर बैठा अपना पैग निपटा रहा था। वहीं से चिल्लाया- गाड़ी में माल बैठी हो तो उतार लाओ इधर नचाते हैं।
हमारे साथ बैठे एक कवि साहस से काम लेते हुए कड़के- ऐ हमलोग पुलिस के आदमी हैं। खबरदार।
तीनों बोल उठे- हम लोग बहुत देखे हैं पुलिस-उलिस। तुमको का लगता है पुलिस से डर जाएंगे। मउगा समझा है का जी... निकाल पिस्टल तो रे...
हम लोगों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। तब तक सामने से बाइक लिए हुए हमारे आयोजक गंज फतेहपुरी जी देवदूत की तरह प्रकट हुए। जरा सी भी देर हो जाती, तो पता नहीं क्या हो जाता।
गंज फतेहपुरी जी यह नजारा देखते हुए चिल्लाये- आरे संतोसवा, अपने आदिमी प? ई कबी लोग हैं न रे...हमारे मेहमान हैं... तुम सबको चिन्हा नहीं रहा है... मारेंगे झापड़ न साले...
तीनों नौजवान गंज फतेहपुरी जी के पास आ गये। पिस्टल छुपाते हुए हाथ जोड़ लिए- आप लोग कबी लोग हैं? बताना नू चाहिए। आप लोग हमारे मेहमान हैं। चलिये-चलिये महाराज...
उनके साथ हम लोग फतेहगंज में दाखिल हुए। वहाँ हमें एक ऐसे कमरे में पहुँचाया गया, जहाँ से अभी गोबर की गंध उठ रही थी। बताया गया कि खास हमारे लिए उस कमरे का इंतज़ाम किया गया था। आज सुबह ही उसकी साफ-सफ़ाई हुई है। मोमबत्ती जला दी गयी। लाइट कटी हुई थी। पता चला कि बिजली यहाँ चौबीस घंटे में चार घंटे ही आती है। अपने कमरे में बैठते ही मच्छरों ने हमारे ऊपर हमला बोल दिया, जैसे हमारा गाँव में आना उन पर नागवार गुजरा हो। मच्छर हमें काटते और हम मच्छरों के तमाचे से शहीद बना देते।
हमारी सेवा में वहीं नौजवान लगे हुए थे, जो अभी थोड़ी देर पहले पिस्तौल लिये हुए हमारे ऊपर टूटे थे। अब उनकी विनम्रता देखते बन रही थी, लेकिन उनसे कुछ कहते हुए भी हमें संकोच हो रहा था। हमने
ऊपरवाले को याद किया और किसी तरह रात गुज़ारी। सुबह हमें लोटे थमा दिये गये। हम खेतों में शौचादि के लिए गये। वापसी में हमारे जूते कीचड़ से लिथड़े हुए थे। रास्ते में लौटते हुए हमें अश्लील गाने सुनने को मिले। एक बच्चे ने पीछे से कंकड़ मारा और हमारे मुड़ने पर पीपीपीपीपी.... चिल्लाते हुए
चिढ़ाकर भाग गया।
साहित्य सम्मेलन का इंतजाम एक दालान में किया गया था। अबोध बच्चियों ने अगरबत्ती जलाकर सामने एक टूटी कुर्सी पर रखे माँ सरस्वती के कैलेंडर की पूजा की और राष्ट्र गान गाया। साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन संबंधित ब्लॉक के अधिकारी ने किया। वह पिछले कुछ महीनों से किसी अनियमितता में निलंबित चल रहा था। उसने कहा कि साहित्य मशाल है और गरम मसाला भी है। साहित्य के बगैर जीवन में स्वाद नहीं आता। उसका मानना था कि वह साहित्य नहीं पढ़ता, तो अधिकारी नहीं बनता। उसने यह भी डंके की चोट पर कहा कि साहित्य से जुड़े होने के कारण ही निलंबित होने के बावजूद वह इस कार्यक्रम का उद्घाटन कर रहा है। वरना कौन पूछता है निलंबित अधिकारी को। उस अधिकारी की बेबाकी हमें गदगद कर गयी।
उसके बाद कवि गोष्ठी शुरू हुई, जिसमें पिस्तौल लिये हमें धमका चुके नौजवानों ने राष्ट्रप्रेम की कविता गाकर सुनाई। धन्यवाद ज्ञापन गंज फतेहपुरी जी ने किया। उन्होंने कहा कि गर्व है कि वे फतेहगंज के नागरिक हैं। उन्होंने घोषणा कि अगले चुनाव में वे प्रधान बने, तो पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजा देंगे। और इस तरह के साहित्य सम्मेलन तो हर महीने ही हुआ करेंगे। उन्होंने हमारा आभार माना कि हम शहर से चलकर इस आयोजन में पधारे। चलते वक्त उन्होंने हमें उन्हीं पिस्तौलधारियों के हवाले किया कि
वे सकुशल हमें सिवान से बाहर छोड़कर आयें। उन्होंने अपनी असमर्थता का जिक्र करते हुए हमसे हमें हुए कष्टों के लिए क्षमा माँगी। और यह वादा किया कि वे प्रधान बन जाएंगे, तो हमारा कर्ज़ उतारेंगे। उन्होंने हमसे आशीर्वाद माँगा। हमारे सामने सहर्ष आशीर्वाद देकर विदा लेने के अलावे और कोई विकल्प ही क्या था...।