डॉक्टर साहब की नई चिट्ठी है. प्रवीण कुमार झा के व्यंग्य हम लोग पढ़ते रहे हैं. आज उनका यह लेख साहित्य में 'अपशब्दों'के प्रयोग ओ लेकर है- मॉडरेटर
========================================
हाल ही में कुछ नयी-पुरानी हिंदी के डिबेट देख रहा था, एक शायद लोकसभा टी.वी. पर भी। औसतन किसी भी प्रकाशन को 'अपशब्द'के उपयोग से चिढ़ है। यह एक तर्कसंगत बात लगती है, और असहमति का प्रश्न ही नहीं। अपशब्द की जरूरत ही क्या है? पर साहित्य में अपशब्द या अश्लीलता समय-समय पर धमाका करते आए हैं। क्रांति-व्रांति नहीं लाए, पर लोकप्रिय हुए। सच पूछिए तो मैनें 'लोलिता'से 'काशी का अस्सी'तक इसी चक्कर में पढ़ा। चेतन भगत की किताब के एक खास पन्ने का जिक्र आता है। बच्चों के हाथ से 'मनोहर कहानियाँ'छीन ली जाती थी।
दरअसल प्रकाशन में 'A सर्टिफिकेट'की व्यवस्था नहीं है, पाबंदी भी लगती है तो राजनैतिक वजहों से। एक बच्चा भी कामसूत्र पढ़ सकता है, और दरअसल बचपन में ही उत्सुकता भी होती है। राहुल सांकृत्यायन की 'वोल्गा से गंगा'भी छुटपन में पढ़ गया। क्या पता कितना समझ पाया, क्या अर्थ निकले? सुरेंद्र मोहन पाठक जी को पढ़ा, खासकर 'निम्फोमैनिएक'। हाल ही में अपने परिवार के बुजुर्ग को प्रभात जी की 'कोठागोई'के बारे में बताया। बेचारे पूरा पढ़कर कुछ निराश होकर बोले, किताब और इतिहास तो लाजवाब है, पर मसाला गोल कर गए प्रभात जी। भला कोठों की बात हो गई, किताब लिखी गई, और अश्लीलता ही गायब। एक पाठक की असल मानसिकता क्या है? पाठक छोड़िए, एक मनुष्य के लिए अपशब्द का क्या महत्व है?
जो लोग महानगरों में रहते हैं, खासकर दिल्ली में या न्यूयॉर्क में, वो अपशब्दों का इस्तेमाल रोजमर्रा की जिंदगी में अधिक करते है। कई संस्कृतियों का मिलन होता है, तनाव होता है, और अपशब्द निकल पड़ते हैं। पंजाब दशकों से तनाव में रहा है, विभाजन हुए, युद्ध हुए, ऑपरेशन ब्लू-स्टार हुआ। इतिहास में खैबर पारकर कई लोगों नें रौंदा। शायद इसी वजह से कई गालियों का अभ्युदय हुआ हो। मेरे एक उत्तर-पूर्व के मित्र बताते हैं, वहाँ गालियाँ कुछ कम है। दक्षिण भारत में भी अपेक्षाकृत कम हैं।
एक दूसरा कारण सामंतवाद रहा है। पर इसका प्रभाव उल्टा पड़ा है। भाषाओं की उत्पति में श्रवण का महत्व है। बच्चे जो सुनते हैं, उन शब्दों को पकड़ते हैं। अमरीकी अश्वेत लगभग हर वाक्य में अपशब्द कहते हैं। जिन्हें शौक है 'डॉ ड्रे'के गाने सुन लें, अपशब्द क्या बेहतरीन सुर देते हैं! इसकी वजह यह रही होगी कि अश्वेत जब गोरों के खेत वगैरा में काम करते थे, तो बच्चे बस उन्हें सुनाई गई गालियाँ सुनते थे। गोरे गालियाँ देते होंगें, पर अब अमूमन अश्वेतों की अपेक्षा कम बोलते हैं। उनके बच्चों को सुनने को कम मिला। भारत में भी दलितों या आर्थिक निम्न वर्गों में गालियों का प्रयोग दशकों से रहा है। सब्जी बेचने आई या मछली बेचने वाली औरतों से जिरह करिए, गालियों का अच्छा स्टॉक है। सामंतवादी व्यवस्था में उन्होनें शायद बचपन में अधिक सुना है। गालियाँ देने वाले उच्च वर्ग की संतान उस हिसाब से कम बोलते हैं, सभ्य भाषा है।
यूरोप में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, पोलैंड और रोमानिया के लोगों के पास कई अपशब्द हैं, स्कैंडिनैविया में कम है। जिन देशों ने दो विश्व-युद्ध देखे, उन्होनें काफी सुना। कभी नाजियों से, कभी एलाइड आर्मी से। आश्चर्यजनक बात यह है कि दुनिया में सबसे अधिक बोले जाना वाला अपशब्द जो 'F'अक्षर से शुरू होता है, उसकी उत्पति स्कैंडिनैविया से हुई। पर यहाँ अब बोली नहीं जाती। इसके लिए ढाई हजार वर्ष और पीछे जाना होगा जब वाईकिंग सेनायें यूरोप में उत्पात मचा रही थी। मतलब यह गालियाँ लेकर गए, और यूरोप के इन देशों में छोड़ आए। इनके बच्चों ने खुद यह गालियाँ सुनी ही नहीं। अब इनके पास बस एक गाली है जो नॉर्वे में है पर स्वीडन में नहीं। मेरी थ्योरी यहाँ भी फिट बैठती है। यह गाली मूलत: स्वीडिश शब्द है, जो वो नॉर्वे के लोगों को देते थे। अब वो नॉर्वे में रह गया, स्वीडन से लुप्त हो गया।
घुमा-फिरा कर मैं यह कह रहा हूँ कि अपशब्द कहने वाला शायद बच जाए, उसके संतान भी। अपशब्द सुनने वाला और उसके संतान शायद आगे ले जाएँ। प्रकाशनों के ऊपर यहीं से एक उत्तरदायित्व आता है। गर वो 'अपशब्द'का उपयोग करें, तो कुछ 'सर्टिफिकेट'लगा दें। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंद है, पर 'लोलिता'का मर्म एक खास उम्र के बाद समझना आसान है। छीन तो मुझसे बचपन में भग्वद् गीता भी ली गई थी, कि अभी समझने की उम्र नहीं।